________________
४४!
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तुत्तीय अध्याय, सूत्र अनुमान के द्वारा नही जनाया जा सका है उसे प्रत्यक्ष ने जनाया है । इसलिए प्रत्यक्ष अनुभूत पदार्थ में प्रवृत्त नहीं होता है किन्तु अननुभूत विषय में ही प्रवृत्त होता है । अतः वह प्रमाण कोटि से बाहर नहीं हो सकता है । तो फिर स्मृति में भी यही बात है। क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय वर्तमानकालिक है, और स्मृति का विषय भूतकालिक है । भूतकालिक अनुभूत विषय को स्मृति जानती है और वर्तमानकालिक अनुभूयमान विषय को प्रत्यक्ष जानता है । इस तरह विषयकृत विशेषता को जानने की अपेक्षा स्मृति में प्रमाणता कही गई है।
सूत्र-प्रत्यक्ष स्मृतिजकत्वावि सङ्कलना स्मिका संवित प्रत्यभिज्ञा ॥६॥
संस्कृत टीका-प्रत्यक्षं स्मृतिञ्च एतज्ज्ञान द्वयं मिलित्वा प्रत्यभिज्ञाशानं जनयति, अतः प्रत्यभिज्ञानस्यैतद् द्वय ज्ञान जन्यत्वं निगदितम् । पूर्वोत्तर दशा द्वय व्याप्येकत्वादिकमस्य विषरः यथा स एवायं श्रावकः, यमहं पूर्व मरुदेशदृष्टवान् आदि यदेन सादृश्यादि प्रत्यभिज्ञानभेदा गृहीनाः । इदमपि स्मृतिवदविसंवादित्वात् स्वतन्त्रमस्ति क्वचिदपि अस्यानन्तर्भावात्-प्रत्यक्षं बनमानदशावनाहि, स्मरण भुतदशावगाहि । एतद् वयम् एकत्वादि विषयक संकलनं कत्त न प्रभवति । तस्य तदविषयत्वात् । न च स्मरण सहकृतमपि इन्द्रियम् एकत्वादि विषये झानं जनयितुक्षम सहकारिणतसमवधानेऽप्यविषये प्रवृत्त्यभावात्। अविषयश्चेन्द्रियाणां पूर्वोत्तर दशाद्वय व्याप्येकत्वम् ॥ ६ ॥
सत्रार्थ--जो अनुभव और स्मृति से जन्य होता है तथा एकत्वादि को जो विषय करता है ऐसा जो मानसविकल्परूप ज्ञान है, उसका नाम प्रत्यभिज्ञा है।
हिन्दी व्याख्या–प्रत्यभिज्ञा ज्ञान को उत्पन्न करने वाले वर्तमानकालिक प्रत्यक्ष और भूतकालिक पदार्थ को जानने वाला स्मरण ये दो ज्ञान हैं । ये दोनों ज्ञान ही मिलकर इस प्रत्यभिज्ञा ज्ञान को उत्पन्न करते हैं। इस प्रत्यभिज्ञा ज्ञान का विषय पूर्व और उत्तर अवस्था व्यापी जो एकत्व आदि हैं वे हैं। जैसे यह वही श्रावक है जिसे मैंने पहले मरुदेश में देखा था। यह ज्ञान न प्रत्यक्ष रूप है और न स्मरण रूप है। किन्त इन दोनों से भिन्न ही है, जिसे इन दोनों ज्ञानों ने उत्पन्न किया है। कल श्रावक को मरुदेश में देखा था। स एवाय श्रावकः" आज जब बही मुजरात में देखने में आता है, तो ऐसा ही बोध होता है । इस ज्ञान को यदि प्रत्यक्ष माना आवे तो “यह है" इस रूप से ही ज्ञान का उल्लेख होना चाहिए । इसके साथ जो "वही है" ऐसा उल्लेख होता है, वह नहीं होना चाहिए । तथा यदि इसे स्मरणरूप माना जावे तो "वही है" ऐसा उल्लेख होना चाहिए "यह वही है" ऐसा उल्लेख नहीं होना चाहिए ।। तो पूर्वदृष्ट पदार्थ के समक्ष आने पर उसमें होता ही है। इसका अपलाप हो नहीं सकता। अतः यह मानना ही पड़ता है कि जो ऐसा उल्लेख हुआ है, वह इन दोनों ज्ञान के जुड़ने से हुआ है। यहाँ महेश में एकत्ल का विचार किया गया है। यदि 'मालथीन' दृष्ट महेश की अपेक्षा 'श्री महावीर जी' दृष्ट महेश में अन्तर होता तो 'यह वही महेश है', ऐसा बोध नहीं होता है। परन्तु ऐसा बोध हो रहा है । यही पूर्व दशा और उत्तर दशावर्ती एकत्व प्रत्यभिज्ञा का विषय है । इस प्रत्यभिज्ञा से एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य आदि अनेक भेद माने गये हैं । गो के जैसा गवय होता है, गाय से भिन्न भैस होती है इत्यादि रूप से होने बाला सादृश्य विषयक बोध एवं वैसादृश्य विषयक बोध प्रत्यभिज्ञा रूप से ही कहा गया है। क्योंकि ऐसे ये सब बोध प्रत्यक्ष और स्मृति के जुड़ने से होते हैं तो जिस प्रकार अपने विषय में अविसंवादिनी होने से स्मति में प्रमाणता है उसी प्रकार से अपने विषयभूत एकत्वादि धर्मों के विषय में अविसंवादी होने से इस प्रत्यभिज्ञा ज्ञान में प्रमाणता है । इसलिए इसका प्रत्यक्ष या स्मरण किसी भी ज्ञान में अन्तर्भाव न