________________
न्यायरत : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ८
|४३ जायते न तु प्रसुप्तस्तिष्ठति तदा तथाविधोद्भू त संस्कारादनुभूतस्य वस्तुनः स्मृतिर्भवति । एतेनाप्रबुद्ध संस्कारस्येयं स्मृतिर्न भवति तथा यमनुभूतविधिण्येव नाननुभूतविषयिणी । संस्कार प्रबोधोऽस्याः कारणम्, पूर्वानुभूत पदार्थोऽस्याः विषयः. तद् इति अम्या आकारः एषां त्रयाणामत्र लक्षण उल्लेखः कृतो ज्ञातव्यः । ननु अनुभूयमान विषयस्य अभावाग्निरालम्बा स्मृतिः कथं प्रमाण प्रतिष्ठिता स्यात् ? नवम् अनुभूतार्थनास्याः सालम्बनत्वोपपत्त : अन्यथाऽनुमानोत्थान वार्ताऽपि दुर्लभा स्यात् । अतीतो विषयः कथमस्या उत्पादक इति नाशङ्कनीयम् ज्ञान प्रति अर्थस्य कारणता प्रतिषेधात् । दत्तग्रहादि विलोपापत्त्या रमते. प्रमाणता स्वयं सिद्ध यति । न च रनुभूते विषये प्रवृत्तमित्येतावताऽस्या अप्रामाण्यम् अनुमितेऽग्न्यादी प्रवृत्तस्य प्रत्यक्षस्यापि अप्रमाणता प्रसंगात् ।
सूत्रार्थ- प्रत्यक्षादि प्रमाण से जाने गये पदार्थ को जानने वाला तथा "वह" इस प्रकार के श्राकार वाला जो ज्ञान है, उसी का नाम स्मृति है।
हिन्दी व्याख्या--स्मरण ज्ञान पहले जाने गये पदार्थ का ही होता है । इस स्मरण को उत्पन्न कराने वाला भावना नाम का संस्कार होता है। इस संस्कार की जब तक जाति नहीं होती तब तक पूर्वानुभूत पदार्थ का स्मरण नहीं होता। इस संस्कार का दूसरा नाम धारणा है । अप्रबद्ध संस्कार वाले व्यक्ति को यह स्मरणम्प ज्ञान नहीं होता है । यह अनुभुत विषय में ही होता है, अननुभूत विषय नहीं । संस्कार का प्रबोध इसका कारण है, अनुभूत पदार्थ इसका विषय है एवं "वह" इसका आकार है। ये तीन बातें इस स्मति के लक्षण में प्रकट की गई हैं । यहाँ शङ्का ऐसी हो सकती है, कि स्मृति का जो विषय है वह वर्तमानकातिक नहीं होता है किन्तु भूतकालिक होता है इसलिए 'अनुभूयमान' विषय का अभाव होने से यह स्मरणज्ञान निविषय माना जावेगा अतः इसे प्रमाण प्रतिष्ठित कसे माना जा सकता है ? सो ऐसी आशंका ठीक नहीं है । इसका अपना विषय ही अनुभूत पदार्थ है । अनुभूयमान पदार्थ स्मृति का विषय नहीं, वह तो प्रत्यक्ष का विषय होता है। इसलिए इसकी अपेक्षा स्मृति निविषय नहीं है, विषयवाली ही है । यदि अनुभूत विषय वाली होने से स्मृति को प्रमाणकोटि से बाहर कर दिया जावे तो फिर अनुमान का उत्थान ही नहीं हो सकेगा; क्योंकि लिंगग्रह्ण के बाद ही अविनाभावरूप सम्बन्ध की स्मृति होने पर ही तो अनुमान का उदय होता है । यदि यहाँ पर बौद्धों की तरफ से ऐसी आशङ्का उपस्थित को जावे किस्मृति अतीत विषय में होती है, अतः वह अतीत विषय इसका उत्पादक कैसे हो सकता है, सो यह शका इसलिए उचित नहीं है कि जैन दार्शनिकों ने ज्ञान की उत्पत्ति में विषय को कारण नहीं माना है। विषय ज्ञान का कारण इसलिए नहीं माना गया है, कि उसका ज्ञान के साथ कार्यकारणभाव सम्बन्ध नहीं बनता है। यह सम्बन्ध तो अन्वय व्यतिरेक के घटित होने पर ही होता है। इस पर सङ्घतरूप में कथन पीछे किया जा चुका है । यदि स्मति को प्रमाणभूत न माना जावे तो संसार में लेने-देने का व्यवहार ही समाप्त हो जाने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा अर्थात् लोक जो दूसरों की अपनी यहाँ पर रखी हुई धरोहर को याद करके उठाते हैं, वह स्मृति की अप्रमाणता में कैसे अब उठाई जा सकेगी ? स्मृति में अप्रमाणता प्रकट करने के लिए यदि ऐसा कहा जावे कि स्मृति गृहीत हुए विषय को ही ग्रहण करती है-अतः गृहीतग्राही ज्ञान की तरह वह अप्रमाण क्यों नहीं मानी जावेगी ? गृहीतग्राही ज्ञान को अप्रमाण मानने का यही कारण है कि वह जाने हुए विषय को ही जानता है । यही बात स्मृति में है । सो इस शंका का उत्तर ऐसा है कि यदि इस प्रकार से स्मृति को प्रमाण कोटि से बाहर रखा जाता है तो फिर अनुमित अग्न्यादि में पश्चात् प्रवृत्त हुए प्रत्यक्ष में भी अप्रमाणता आ सकती है । यदि इस पर यों कहा जावे कि अनुमान से जाने गये पदार्थ में प्रवृत्त हुए प्रत्यक्ष में उस विषय को स्पष्ट रूप से जनाने की क्षमता है । अतः जो