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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ५, ६, ७, ८ सूत्र-बन्धनरहित मुखवस्त्रिया मुर्खापधामम् अप्रशस्त जीवरक्षाऽभावात् ॥ ५॥ . संस्कृत टीका-पूर्व मुखे सदा सदोरक मुखवस्त्रिका बन्धनं जीव संरक्षण हेतुस्वात् श्रेष्ट साधितम् । अधुना तु दोरकरहित मुखवस्त्रिकया मुखपिधान (आच्छादन) जीव संरक्षणे हेतुत्वात् न थेप्ठमिति साध्यते । न तया मुखे सूक्ष्म सचित्तरजःकण प्रवेशेन जायमाना पृथिवीकायस्य, वृष्ट्यादिवशात्
आगरिक जलकमान प्रशन जायमाना जलकायम्य (अप्कायस्य), अग्निस्फुलिङ्गानामुत्पाते न आकस्मिक सूक्ष्माग्नि स्फुलिंग निपातेन या जायमाना तेजस्कायस्य, तथा मुखोष्णश्वास निःश्वासाभ्यां जायमाना बाह्यवायुकायस्य, यत्र जल तत्र वनमिति व्याप्तिन्यायेन जलनान्तरीयकतया मुखे सचित्त जल बिन्दु पातेनैव जायमाना वनस्पतिकायस्य च विराधना बार्यते । अधिकं स्याद्वाद मार्तण्डेऽवलोकनीयम् ।
सूत्रार्थ-बन्धनरहित मुखव स्त्रिका से मुख डाँकना यह श्रेष्ठ मार्ग नहीं है। क्योंकि इस प्रकार के करने से जीवों को रक्षा नहीं होती है।
हिन्दी व्याख्या-यह बात अच्छी तरह से स्पष्ट कर दी गई है कि दोरा सहित मखवस्त्रिका को मुख पर वाँधने से जीवों की रक्षा होती है अतः इसका मुख पर बांधना प्रशस्त है । परन्तु जो इस प्रकार नहीं करते हैं किन्तु दोरारहित मुखवस्त्रिका से भाषण करते समय भुख क लेते हैं सो यह मार्ग प्रशस्त नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में उसके द्वारा पटकाय के जीवों को होती हुई विराधना रोकी नहीं जा सकती है। जब मुनिजन भाषण करते हैं तब मुखवस्त्रिका से ढंके हुए भी मुख में प्रवेश करते हुए सूक्ष्म सचित्तरजःकण का कौन वारण कर सकता है ? उनके वहाँ प्रवेश होने पर उसकी विराधना होती है इसी तरह से अप्काय आदि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये । विशेष जानने के लिये स्याद्वाद मार्तण्ड को देखना चाहिये ।। ५ ॥
सूत्र-वैशविहीनं ज्ञानं परोक्षम् ।। ६ ।। संस्कृत टीका-उक्तलक्षणं वेशद्यम् --तेन विहीन ज्ञान परोक्षम् ।
सूत्रार्थ-वेशद्य का स्वरूप कह दिया गया है । इस दिशदता से रहित जो ज्ञान होता है वह परोक्ष है।
सूत्र-स्मृति प्रत्यभिजातानुमानागमभेदात् तत्पञ्चविधम् ॥७॥
संस्कृत टीका- तत्परोक्ष प्रमाणं स्मृत्यादिभेदेन पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । एतेषां विशेषलक्षणानि यथायथमग्रेऽभिधास्यन्ते। .. सूत्रार्थ-वह परोक्ष प्रमाण स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम के भेद से पांच प्रकार का कहा गया है। " सूत्र–पूर्वानुभूतविषयकं तत्तोल्लेखि ज्ञान स्मृतिः ॥ ८॥
संस्कृत टीका-पूर्वम् अनुभूतप्रत्यक्षादिना अनुभव विषयीकृतः योऽर्थस्तद्विषयकं यत् तत्तोल्लेखिजानं भव । तत्स्मृतेर्लक्षणम् । “तत्तोल्लेखि" पदेन उद्भूत संस्कारजन्यत्वमत्रावेदितं ज्ञातव्यम् । उद्भुत संस्कारमन्तरेण तत्तोल्लेखिप्रत्ययस्याभावात् । अत्रेदं बोध्यम्--कस्यापि वस्तुनः प्रत्यक्षादिना अनुभवानन्तरं तद्वस्तुविषयको भावनाख्यो धारणा परपर्यायः संस्कारो भवति स च यदा केनापि साधनेन उद्बुद्धो