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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सत्र १३
और विषयी का योग्यदेशावस्थानादिरूप योग्यता को लेकर जो सम्बन्ध होता है, उस समय वस्तु केवल सत्त्वसामान्य विशिष्ट ही दर्शन के द्वारा जानी जाती है। इसके बाद अवग्रह ज्ञान के द्वारा वही वस्तु अवान्तर सत्ता से विशिष्ट जानी जाती है । इसके बाद निश्चयतः उद्भूत हुए संशय को हटाने के लिये निश्चय की ओर झुकाव वाला ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है, और वह अपने पद के अनुसार उसकी गवेषणा करता है । इसके बाद ईहा के द्वारा की गई गवेषणा को यथार्थता का रूप देने के लिये अवायज्ञान प्रवृत्त होता है। बाद में कालान्तर में भी उस बस्तु की स्मृति आती रहे, वह वस्तु ज्ञाता के चित्त से उत्तर न जावे इसके लिये धारणा उस वस्तु को ज्ञाता के चित्त में दढ़ रूप से जमा देती है। इस प्रकार का ऋम इनकी उत्पत्ति का जो स्वानभव के गोचर प्रत्येक प्राणी को होता है-वह कारण-क्रम को लेकर
। इनका कारण ऐसे ही क्रम वाला है। अतः कार्य में कैमता मारणम के ही अनुसार आती है। दर्शनावरणादि जो इनो आवरण करने वाले कर्म हैं, उनका क्षयोपशम इनका उत्पादक होता है। सो इनका क्षयोपशम इसी क्रम से होता है, अतः ये इसी नाम से होते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से दर्शन और ज्ञानावरगीय कर्म के नयो गम से अवग्रहादि भप ज्ञान होते हैं ।
प्रश्न- क्या ये अनग्रहादि एक वस्तु में समस्त रूप में होते हैं या कुछ कम भी होते हैं ?
उत्तर-यह तो ज्ञाता के क्षयोपशम के ऊपर आधारित है। यदि माता को इचछा पदार्थको सामान्य रूप से ही जानने की है, तो वहाँ केवल क्षयोपशमानुसार उसे दर्शन मात्र होकर रह जावेगा, और यदि अवान्तरसत्ता से विशिस्ट जानने की है, तो वहाँ उसे दर्शन, अवग्रह ये दो ज्ञान क्षयोपशम के अनुसार हो जायेंगे। इसी प्रकार से बह यदि अपने जानने की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाता है, तो उस समय उसे ऐसा नियमतः संशय होगा कि यह मनुष्य कहीं का है, क्या मदेश का है, या गुर्जर देश का है ? उसी समय गवेषणा करने में वह आजावेगा, और विचारमग्न होकर सोचने लगेगा, कि इसे गुर्जर देश का निवासी होना चाहिये। बात-चीत के प्रसङ्ग में बह जब उसकी भाषा पर ध्यान देता है तो गूर्जर देश की भाषा का प्रयोक्ता उसे देखकर ही वह इस बात का निश्चय कर बैठता है कि अवश्य ही वह गुर्जर देश की भाषा का प्रयोक्ता होने से अहमदाबाद का निवासी ही है । अब जब-जब वह उसे देखता है तो यही निश्चय कर लेता है कि यह अहमदाबाद का ही निवासी है या वह उसे अपने स्थान पर रहते हुए भी जो याद आता रहता है, इसका कारण वही धारणा है, कि जिसने उसकी आत्मा पर ऐसे संस्कार की छाप जमा दी है, कि जिसके कारण वह कालान्तर में भी उसे याद आता रहता है । इस तरह से इन ज्ञानों का उदय एक आत्मा में समस्त रूप से भी होता है. और व्यस्तरूप से भी होता है । इसी से दर्शन अवग्रहादिकों में परस्पर भिन्नता भी सिद्ध होती है।
तथा ये अवग्रहादिरूप एक ही वस्तु को जानने के सम्बन्ध में प्रवृत होते हैं। फिर भी इनमें विषयसांकर्य नहीं होता है, क्योंकि इनका विषय अपूर्व-अपूर्व होता है । जो दर्शन का विषय है, वह अवग्रह का नहीं है, जो अवग्रह का विषय है बह ईहा की नहीं है, जो ईहा का विषय है वह अवाय का नहीं है, और जो अवाय का है वह धारणा का नहीं है। किन्तु दर्शन ने जिस विषय को केवल सत्त्व सामान्य रूप से दृष्टिपथ किया है । उसी विषय को अन्दग्रह ने विशेष रूप से विषय किया है क्योंकि इन सब झानों के विषय ही ऐसे हैं जो एक दूसरे के बिषय से मिलान नहीं खाते हैं। इस तरह अपूर्व-अपूर्व विषय की व्यवस्था करने वाले होने के कारण इनके द्वारा गृहीत विषय में कथमपि संकरता नहीं आती है। ऐसा जानना चाहिए।