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भ्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र ६
| २५ कस्य प्रत्यक्षस्य सामग्री निरूपणमयुक्तमसाधारणस्यैव तत् कारणस्यात्र ववतुमिष्टत्वात् । एतेनात्मनः तत्प्रत्यसाधारण कारणता प्रत्युत्ता प्रत्यान्तरेऽपि अस्प सद्भावात् । अर्थालोकयोस्तु तत्कारणत्वमेव नास्ति व्यभिचारात् । तत्रेन्द्रियप्राधान्यात् मनोनिमित्तात् जायमानं देशतो विशदं ज्ञानद इन्द्रियजं सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । कर्मणः क्षयोपशमाज्जायमानयाविशुद्ध योपलक्षितेन केवलं मनसा जायमानं देशतो विशदं ज्ञानमनिन्द्रियजं सांव्यवहारिकम् ।।५।।
सूत्रार्थ-चक्षुरादिक इन्द्रियों से और अनिन्द्रिय-मन से पदार्थ का जो एकदेण निर्मलता लिये हुए ज्ञान होता है वह सन्यवहा रेत माया है। वह पांचवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियज और अनिन्द्रियज के भेद से दो प्रकार का कहा गया है ।।५।।
हिन्दी व्याल्या--इन्द्रियजन्य सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में इन्द्रियों की प्रधानता–अमाधारण कारणता रहती है, एवं मन की सहायता रहती है। प्रत्येक इन्द्रिय जो अपने-अपने विषय का मन की सहायता से एकटेश विशद ज्ञान करती है, वह इन्द्रियज प्रत्यक्ष है। तथा अनिन्द्रिया प्रत्यक्ष में केवल कर्म के क्षयोपशम से जायमान विशुद्धि से उपलक्षित मन की प्रधानता रहती है।
प्रम सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का कारण जैसा आपने इन्द्रिा और अनिन्द्रिय को बतलाया है उसी प्रकार से आत्मा को भी बतलाना चाहिये था मो इसे आपने इसके कारण के प्रसङ्ग में क्यों नहीं बतलाया?
उत्तर-यहाँ पर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के प्रति जो असाधारण कारण हैं, उनको ही बतलाना इष्ट है-साधारण कारण को नहीं । आत्मा साधारण कारण है। क्योंकि वह अन्य प्रत्ययों के साथ भी रहती है।
प्रश्न—सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में जिस तरह इन्द्रियादि कारण हैं। उसी प्रकार से अर्थ-पदार्थ एवं आलोक-प्रकाश आदि भी कारण हैं । तो फिर इनका उल्लेख आपने क्यों नहीं किया ?
उत्सर-जेन दार्शनिकों ने यह प्रबल युक्तियों द्वारा समर्थित किया है, कि ज्ञान के प्रति अर्थ एवं आलोक कारण नहीं होते हैं। क्योंकि इन्हें कारण मानने पर अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोनों प्रकार के व्यभिचार आते हैं । ऐसा नियम नहीं बनता है, कि अर्थ और आलोक के होने पर ही ज्ञान हो और इनके अभाव में ज्ञान न हो। रात्रि में चलने वाले उल्लू आदि पक्षियों को आलोक के अभाव में भी पदार्थ का ज्ञान होता है, एवं आलोक के सद्भाव में उसे ज्ञान नहीं होता है। इसी प्रकार केशों में मच्छर का ज्ञान हो जाया करता है। यही बात "अर्थालोकयोस्तत्वारणत्वमेव नास्ति" इस पाठ द्वारा प्रकट की गई है।
सूत्र-श्रोत्रादिभेदाज्ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च ||६||
संस्कृत टीका-श्रोत्रचक्षणिरमनास्पर्शनानीन्द्रियाणि ज्ञानजनकत्वात् ज्ञानेन्द्रियाणि, पञ्चैव तानि भवन्ति । तेनात्र कर्मेन्द्रियाणां निरासो जायते । इन्द्रस्य जीवस्यात्मनो लिङ्गम् अविनाभाविसत्ता सूचनात् इन्द्रियमुच्यते, अतएव श्रोत्रादिना कार्यजनने चेतनस्यात्मनः सत्ताऽनुमिताति ।।६।।
सूत्रार्थ-श्रोत्र, चक्ष , घ्राण, रसना और स्पर्शन ये पाँच इन्द्रियाँ हैं ।
हिन्दी व्याख्या--श्रोत्रादि ये पाँच इन्द्रियां ज्ञानजनक होने से ज्ञानेन्द्रियाँ कही गई हैं। ये इन्द्रियां पांच ही होती हैं । इन्द्र नाम आत्मा का है । आत्मा की सत्ता इन इन्द्रियों से ही सूचित होती है। इसलिये न्या० टी०४