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न्याय रत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र ४-५
विशेष ज्ञानवाला बन जाता है । वह जान लेता है कि यह अग्नि पत्तों की है अथवा लकड़ी व कंडों की है । यही बात "तेषामपि विशेषाणां नियत संस्थानादीनां येन प्रतिभासनेन यत् प्रकाशनं भवति" इस पाठ द्वारा स्पष्ट की गई है। इस प्रकार से परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण में जो वह स्पष्टता प्रकट की गई है, वह केवल समझाने के लिये की गई है क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान तो सब ही परोक्ष माने गये हैं । पारमार्थिक प्रत्यक्ष नहीं माने गये हैं। हां, लोक व्यवहार को लक्ष्य में रखकर उन्हें सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है । इसी कारण इन्द्रियजन्य ज्ञान में अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार स्पष्टता का कथन किया गया है । स्वरूप की अपेक्षा विचार करने पर तो जितने भी ज्ञान हैं, वे सब ही विशदात्मक हैं क्योंकि स्वसंवेदन में समस्त ज्ञानों का स्वरूप परिस्फुट रूप से प्रतिभासिक होता है । परन्तु कितने ही ज्ञान ऐसे हैं कि जिनमें बहिरर्थमित मासे प्रतिभारित होता है और कितने ही ज्ञान ऐसे हैं कि जिनमें बहिरर्थ परिस्फुट रूप से प्रतिभासित नहीं होता । अतः ज्ञान में वैद्य और अवैशव का विचार वाह्यार्थ की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये । यहिरर्थ ग्रह्णापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षतर व्यपदेशः तत्र प्रमाणान्तर व्यवधानाच्यवधान सद्भावेन वैशातर सम्भवात् नतु स्वरूपग्रहणापेक्षया तत्र तदभावात्-प्रमेय कमल मार्तण्डः ॥३।।।
सूत्र--सांव्यवहारिक पारमाथिकाभ्यां प्रत्यक्ष द्विविधम् ॥४॥
संस्कृत टीका-संव्यवहारे नियुक्तं सांव्यवहारिक गौणं प्रत्यक्षमित्यर्थः तच्चन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षम् इन्द्रियाणां चक्षुरादीनान अनिन्द्रियस्य च मनसः कार्यम् अंशतो विशदं विज्ञानं तल सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम बाह्येन्द्रिय सामग्री सापेक्षत्वात् एतत् प्रत्यक्षम् अपारमाथिक निगदित्तम् अवधि-मनःपर्यय-केबलाख्य प्रत्यक्षं पारमार्थिक प्रत्यक्ष' बाह्येन्द्रियादि सामग्री निरपेक्षात्ममात्रजन्यत्वात अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमपि एतद् निगद्यते स्वसंवेदनं प्रत्यक्ष स्वस्थप्रत्यक्षेऽन्तर्भावात्स्वतन्यता नाऽसि अतस्तनोक्तम् ।।४॥
सूत्रार्थ-जिसका लक्षण वैशय कहा गया है ऐसा वह प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमाथिक प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है।
हिन्दी व्याख्या-जो ज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता से उत्पन्न होता है, वह एकदेण से विशद होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। बाधारहित प्रवत्ति और निवत्ति काव्य
व्यबहार का नाम ही संव्यवहार है । इस संव्यवहाररूप प्रयोजन में जो नियुक्त होता है, अर्थात यह संव्यवहार जिसके बल पर चलता है, ऐसे संव्यवहाररूप प्रयोजन वाला जो प्रत्यक्ष है, वहीं सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । इसे मुख्य प्रत्यक्ष नहीं माना गया है किन्तु गौण प्रत्यक्ष माना गया है । इसका कारण यही है, कि यह इन्द्रियों से एवं मन से उत्पन्न होता है अतः इसमें अंशतः विशदता रहती है। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब पारमार्थिक मुख्य प्रत्यक्ष है क्योंकि वे इन्द्रियादि सामग्री से निरपेक्ष आत्ममात्र से ही उत्पन्न होते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष का दूसरा नाम अतीन्द्रियप्रत्यक्ष भी है । इस अतीन्द्रियप्रत्यक्ष से ही सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का यदि वह इन्द्रियजज्ञान का स्वसंवदेन है तो उसका अन्तर्भाव इन्द्रियजज्ञामप्रत्यक्ष में. अनिन्द्रियजसखादि संवेदनरूप है. नो अनिन्द्रिजप्रत्यक्ष में और यदि वह योगिप्रत्यक्ष का स्वसंवेदन है, तो योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव हो जाता है। अतः घह स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्ष नहीं माना गया है । इसलिये उसे यहाँ नहीं कहा है ॥४||
सूत्र–इद्रियानिन्द्रियज वेशतो विशदं सांव्यवहारिकम् ।।५।। संस्कृत टीका-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष द्विविधमिन्द्रिय जानिन्द्रिय भेदान्, न चाव सांव्यवहारि