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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र ३
|२३ प्रश्न-हेतु जब अपने अन्वय दृष्टान्त से रहित होता है तो वह अनन्वय दोष माना जाता है यहाँ पर "प्रत्यक्षत्वात्" यह हेतु भी ऐसा ही है ।
उत्तर-ऐसा एकान्त नियम नहीं है कि हेतु अन्वय दृष्टान्त से युक्त होने पर ही स्वसाध्य का गमक होता है, जहाँ पर हेतु सपक्षवृत्ति वाला नहीं होता है, वहाँ पर अन्ताप्ति के बल से ही अपने साध्य का गमक हो जाया करता है। यहाँ पर भी यह हेतु अत्ताप्ति वाला है। क्योंकि पक्ष में ही बाध्य साधन की जो व्याप्ति ग्रहण की जाती है वही अन्तयाप्ति है पक्ष में ही साध्य साधन की व्याप्नि इसलिये गृहीत हो जाती है कि सपक्ष में हेतु का सद्भाव नहीं पाया जाता है । यहाँ विपक्ष परोक्ष है, उसमें विशदात्मस्वरूप ज्ञान का अभाव है, अतः वहाँ प्रत्यक्षता नहीं है । अतः यह प्रत्यक्षता बिरादात्मन्त्र रूप ज्ञान में ही सिद्ध होती है।
प्रश्न-"कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्" इस प्रत्यक्ष के लक्षण' को जैन-दानिकों ने स्वीकार क्यों नहीं किया?
तर-यह तो पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि जो ज्ञान स्व-पर निश्चयात्मक होता है वही प्रमाण होता है । बौद्धसम्मत यह प्रत्यक्ष का लक्षण ऐमा नहीं है, अतः उसे जैन-दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष
क्षण प से स्वीकत नहीं किया है। इसी तरह और भी जिलने अन्य दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के लक्षण कहे हैं, वे यदि इस लक्षण से आलिगित हैं, तो निर्दोष हैं, नहीं तो सदोष हैं –ोमा समझना चाहिए । अतः प्रत्यक्ष का यह लक्षण सर्वथा निर्दोष है क्योंकि इसमें न लक्षणगन दोप हैं और न हेतुगत दोग हैं ।सा
सूत्र–अनुमानाधसभवि नर्मल्यं वैशधम् ।।३।।
संस्कृत टीका-यन्नमल्यम् अनुमानादिबानेषु संभवति अर्थात् परोक्ष-प्रमाणउँपां नियतरूपसंस्थानाद्याकाराणां स्पष्टतया प्रतिभासन न भवति तेषामपि विषाणां नियतसंस्थानादीनां येन प्रतिभासनेन यत् प्रकाशने भवति तदेव बैशाम स्वरूपापेक्षया सर्व ज्ञानं विशदमेव परिस्टरूपतया स्वरूपस्य सर्वज्ञानानां स्वसंवेदने प्रतिभासनात् बहिरर्थस्तु केपांचित् ज्ञानानां परिस्फुटरूपतया प्रतिभानि, केषाञ्चित्त, तद्विपरीतया, अतस्तदपेक्षया तेषां वैशद्यावैशये प्रतिपतये ।
सूत्रार्थ- अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणों में नहीं संभावित होने वाली जो निर्मलता है उसी का नाम वैशद्य है।
हिन्यो व्याख्या-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण में कही गई विशदता का स्वरूप समझाया है । यह तो स्पष्ट है कि अनुमान, आगम आदि परोक्ष प्रमाणों द्वारा समझी हुई वस्तु में स्पष्टतारूप प्रतिभास की प्रतीति नहीं होती है । जब गुरुजन अपने शिष्य को ऐसी बात समझाते हैं किधूम होने से पर्वत में अग्नि है । शिष्य गुरु की इस बात को बार-बार सुनकर अग्नि और धूम का अतिनाभाव सम्बन्ध जान लेता है । वह जब कभी पर्वतादि प्रदेश में धूम को देखता है तो उस सम्बन्ध का स्मरण कर वह यह जान लेता है कि यहां पर अग्नि अवश्य है क्योंकि धूम निकल रहा है । अब यहां पर जो शिष्य को परोक्षभूत अग्नि का ज्ञान हआ है वह अस्पष्ट है, निर्मलता से रहित है। क्योंकि उसे यह ज्ञान अग्नि के सम्बन्ध में नहीं हो पाया है कि यह अग्नि पत्तों की है, या काष्ठ या कंडों की है। सामान्य
से ही उसे धमलिङ्गद्वारा अग्नि का ज्ञान हुआ है। परन्तु जन वही शिष्य पर्वत पर पहुँच कर उम पर अग्नि को देखता है, तो वह पहले अनुमानादि द्वारा बतलाई गई उस अग्नि के सम्बन्ध में अब