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न्यायरश्न : न्यायरश्नावली टीका द्वितीय अध्याय, सूत्र २
प्रश्न- तो फिर जो कहीं-कहीं प्रत्यक्ष कहा गया है वह क्यों कहा गया है ?
उत्तर- इन्द्रियजन्य ज्ञान को जो प्रत्यक्ष कहा गया है - वह उपचार से ही कहा गया है। वास्तविक रूप से नहीं । उपचार का कारण उसमें एकदेश से विशदता का होता है। यही बात "इन्द्रियजन्यं तु ज्ञानमौपचारिकं प्रत्यक्षम् " इस पद द्वारा प्रकट की गई है || १ |
सूत्र - विशवात्मस्वरूपं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ||२||
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संस्कृत टीका - ज्ञानावरणस्य क्षयात् विशिष्ट क्षयोपशमाद्वा यस्य ज्ञानस्य आत्मस्वरूपम् — आत्मप्रकाशः विशवं निर्मलं भवति तदेव ज्ञानं प्रत्यक्षं नान्यत् । ज्ञानपदेन सांख्यपरिकल्पित श्रोत्रादि वृत्तिः प्रत्यक्षमिति निरस्तम् । प्रत्यक्षं लक्ष्यं विशदात्मस्वरूपं ज्ञानं लक्षणम् । प्रत्यक्षत्वादिति हेतुः स्वयं मूाः कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति लक्षणं तीर्थान्तरीयाभिमतम् एतेन निरस्यते ॥२॥ |
सूत्रार्थ - विशद आत्मस्वरूप बाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहा गया है ।
हिन्दी व्याख्या- ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अथवा विशिष्ट क्षयोपशम से ज्ञान में जो निर्मलता आती है, उसी का नाम विशदता है, और इस विशदता से निर्मलता रूप आत्मस्वरूप से युक्त जो ज्ञान है, वही प्रत्यक्ष है | यहाँ ज्ञान पद से सांख्यकारों ने जो श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को प्रत्यक्ष माना है उसका निरास किया गया है।
प्रत्यक्ष यह लक्ष्य है- क्योंकि जिसका लक्षण किया जाता है वह लक्ष्य कहलाता है । यहाँ "विशदात्मक स्वरूपम्" ऐसा लक्षण प्रत्यक्ष का किया गया है तथा जो अपने लक्ष्य को दूसरों से मिल करता है, वह लक्षण होता है । जैसे अग्नि का लक्षण जब उष्ण स्पर्श किया जाता है तो यह लक्षण अग्नि को पानी आदि से भिन्न करा देता है । इसी प्रकार यहाँ जो प्रत्यक्ष का लक्षण किया गया है, वह भी इस लक्षण से शून्य जो भी ज्ञान होंगे वे सब प्रत्यक्ष नहीं हैं, ऐसा प्रकट कर उनसे अपने लक्ष्य को भिन्न करता है | साख्यसम्मत प्रत्यक्ष का लक्षण सदोष इसलिए है कि जब श्रोत्रादि इन्द्रियों स्वयं प्रकृति के विकार रूप हैं तो उनकी जो वृत्ति है वह भी जड़रूप ही होगी । अतः वह प्रत्यक्षस्वरूप नहीं हो सकती । यहाँ पर अनुमान प्रयोग “विशदात्मस्वरूपं ज्ञानं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षस्वात् " इस प्रकार से किया गया है।
प्रश्न- यहाँ पर "प्रत्यक्षत्वात्" ऐसा जो आप सूत्र में नहीं कहे गये हेतु का प्रयोग कर रहे हो सो यह प्रतिज्ञात अर्थ का एकदेश होने से असिद्ध है - अलः असिद्ध हेतु से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है ?
उत्तर—यह तो हम मानते हैं कि असिद्ध हेतु अपने साध्य की सिद्धि करने में सर्वथा अक्षम होता है । पर यहाँ जो 'प्रत्यक्षत्वात्' हेतु कहा गया है वह असिद्ध नहीं है प्रत्युत सिद्ध ही है । प्रतिज्ञाताथैकदेश होने से कोई भी हेतु असिद्ध नहीं होता है । यदि ऐसा नियम माना जावे तो प्रतिज्ञा का एक देश धर्मी भी होता है पर वह तो सिद्ध ही होता है । असिद्ध नहीं होता है। रही साध्य की बात सो वह प्रतिज्ञा का एकदेश होने से असिद्ध नहीं कहा जाता है । प्रत्युत वह स्वभावतः ही असिद्ध होता है । तभी तो जाकर उसकी अपने पक्ष में हेतु द्वारा सिद्धि की जाती है। यहाँ "प्रत्यक्षम् " वह धर्मी है "विशदात्मस्वरूपं ज्ञानम्" यह साध्य है, और “प्रत्यक्षत्वात्" यह हेतु है । धर्मीरूप में जो प्रत्यक्ष है वह विवक्षित होने से विशेष रूप है, और "प्रत्यक्षत्वात्" यह सामान्यरूप से हेतु है । सामान्य अपने सकल विशेषों में रहता है। इसमें तो किसी को विवाद ही नहीं है । अतः हेतु असिद्ध नहीं है ।