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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टोका : द्वितीय अध्याय, सूत्र १ आगे के प्रकरण में किया जावेगा। इस तरह प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही प्रमाण है, न इनसे अधिक हैं न इनसे कम हैं।
प्रश्न-चार्वाक ने तो एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना है। परोक्ष को प्रमाण नहीं माना है। फिर आपका कथन कसे युक्त माना जा सकता है ?
उत्तर-चार्वाक ने तो प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माना है, पर तर्क के बल से उसे अनुमान प्रमाण मानना पड़ेगा। अन्यथा वह प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, अन्य प्रमाण नहीं है यह अपना कथन कमे प्रमाणित कर सकता है ? इस सम्बन्ध में और भी विस्तार के साथ अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में विवेचन किया गया है तथा हम भी आगे विवेचन करने वाले हैं। अतः वहीं से यह विषय विशेष रूप से स्पष्ट हो जावेगा।
प्रश्न–अनुमान को प्रमाण मान लेने पर परोक्षप्रमाण मान लेने की बात इससे कैसे घटित होती है ?
उत्तर-अनुमान यह परोक्षप्रमाण का ही एक भेद है । अतः इसकी स्वीकृति से परोक्षप्रमाण मानने की बात सिद्ध हो जाती है ।
प्रश्न-बिग-किन दार्शनिकों ने वितने-कितने प्रमाण माने हैं, यह हमें समझायेंगे क्या ?
उत्तर-क्यों नहीं, सुनिये--चार्वाक एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण बौद्ध और वैशषिक मानते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द (आगम) ये तीन ही प्रमाण हैं, ऐसा सांख्य मानते हैं । प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान ये चार ही प्रमाण हैं ऐसा नैयायिक मानते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति ये पाँच ही प्रमाण हैं ऐसा मीमांसक मानते हैं। पूर्वोक्त पाँच और अभाव (अनुपलब्धि) ये छः ही प्रमाण हैं, ऐसा भट्ट वेदान्ती मानते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाण जैन दार्शनिक मानते हैं।
चार्वाकोऽध्यक्षमेक सुगतकणभुजौ सानुमानं सशब्द
तहतं पारमार्षः सहितमुपमया तत्त्रयं चाक्षपादः ॥ अर्थापत्त्या प्रभाकृद् वदति स निखिलं मन्यते भट्ट एतत्
साभावं, २ प्रमाणे जिनपति समये स्पष्टतोऽस्पष्टतश्च ।।१।। प्रश्न-जन भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने पूर्वोक्तरूप से प्रमाण सख्या बतलाई है तो फिर उसे आपने प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण में से किस प्रमाण में अन्तर्भूत किया है ?
उसर-सूत्रकार जब परोक्ष प्रमाण का स्वरूप कथन करेंगे तब वहाँ इसका वे कयन करेंगे कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तकं, अनुमान और आगम ये परोक्ष प्रमाण के ५ भेद हैं। इनमें पूर्वोक्त अर्थापत्ति का समावेश अनुमान प्रमाण में, और उपमान प्रमाण का समावेश प्रत्यभिज्ञान में हो जाता है, अभाव में स्वतन्त्ररूप से प्रमाणता बनती नहीं है। अतः प्रमाणता में इसे स्थान प्राप्त नहीं होता है । रही चार्वाक के प्रत्यक्ष की बात सो उसका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में ही हो जाता है।
प्रश्न-आपने जो ऐसा कहा है कि केवल आत्म मात्र की सहायता से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वही प्रत्यक्ष है तो इससे तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन्द्रियों से जायमान ज्ञान परोक्ष है ।
उसर-हाँ, इन्द्रियों से जायमान ज्ञान परोक्ष ही है।