________________
१२
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र ४-५ होता है । इसलिये स्वपर के निर्णय करना रूप क्रिया में जो करण होगा वही प्रमाण होगा । इस क्रिया में करण ज्ञान ही है, अतः वही प्रमाण है।
प्रश्न-स्वनिर्णय करने में जो सशक्त होता है वहीं पर-निर्णायक होता है। ऐसा नियम यदि माना जावे तो फिर इन्द्रियादि द्वारा पदार्थ का जो निर्णय होता देखा जाता है वह कैसे हो सकेगा ?
उत्तर-इन्द्रियों द्वारा पदार्थ का निर्णय होता है, ऐसी यह मान्यता केवल औपचारिक हैवास्तविक नहीं । क्योंकि इन्द्रियाँ जड़ हैं, और जड़ में किसी भी पदार्थ का निर्णय होता नहीं है। जिस प्रकार मकान के भीतर बैठा हुआ देवदत्त खिड़की के द्वारा बाहरी पदार्थों को देखता है। इसी प्रकार द्रव्येन्द्रिय द्वारा भावेन्द्रिय रूप ज्ञान पदार्थों को जानता है, उनका निर्णय करता है।
प्रश्न-शा में प्रकाशकाता स्वतः है बासरत है ?
उत्तर-जान में स्वप्रकाशकता स्वतः है, परतः नहीं है क्योंकि ज्ञान चेतन आत्मा का एक सहभावी गुण है । अतः यह दीपक की तरह स्व-पर का प्रकाशक माना गया है। इमलिये स्व-पर-निर्णय कराने में करण रूप से साधकतम चेतन धर्म रूप ज्ञान को ही मानना चाहिये जड़ को नहीं।
प्रश्न-यहाँ पर अनुमानप्रयोग किस प्रकार से किया गया है ?
उत्तर-अनुमानप्रयोग इस प्रकार से किया गया है---अपने और पर के निर्णय करने में असाधकतम होने के कारण सन्निकर्ष प्रमाणरूप नहीं है, जो स्व और अर्थ के निर्णय करने में असाधकतम होता है, वह प्रमाण नहीं होता है जैसे घटादि । स्व और अर्थ के निर्णय करने में असाधकतम सन्निकर्ष है । इसलिये वह प्रमाण नहीं है । इस प्रकार का यह पञ्चावयब सम्पन्न अनुमान का प्रयोग है ॥ ३ ।। जड़ में साधकतमता का अभाव कथन :--
सूत्र-चेतन धर्म व्यतिरिक्तस्य सटिकवेः स्व-परनिर्णये स्तम्भादेरिव न साधकत्वम् ॥ ४ ॥
संस्कृत टीका-यतः सन्निकर्षादिश्चेतन धर्म व्यतिरिक्तस्ततस्तत्र स्तम्भादेरिव स्व-पर-निर्णायकरवं नास्ति । अतः कथं तत्र साधकतमत्वं संभवेत् ॥ ४॥
हिन्दी व्याख्या-स्व और पर के निर्णय करने की प्रति जड में साधकतमता नहीं है। ऐसा जो पहले कहा गया है उसी का समर्थन इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने किया है । इसमें यह समझाया गया है, कि सभिकर्षादि जड़ इमलिये हैं, कि वे चेतन धर्म से भिन्न हैं। जैसा कि चेतन धर्म से भिन्न स्तम्भ होता है। अतः जिस प्रकार स्तम्भ में चेतन धर्म से भिन्न होने के कारण जड़ता है। उसी प्रकार से सन्निकर्षादि में भी चेतन धर्म से भिन्नता है। जहाँ-जहाँ चेतम धर्म से भिन्नता होती है, वहाँ-वहाँ नियम से जड़ता होती है। सन्निकर्ष भी इसी तरह का है क्योंकि इन्द्रियाँ चेतन धर्म से व्यतिरिक्त हैं, और बाह्य पदार्थ भी चेतन धर्म से व्यतिरिक्त हैं । जब यह बात है तो इनका जो संयोगरूप सन्निकर्ष है, वह भी जड़ ही है। इसलिये वह भी चेतन धर्म से भिन्न है। फिर इसमें स्व-पर-निर्णयरूप क्रिया के प्रति साधकतमता कैसे आ सकती है ? चेतन धर्म रूप ज्ञान में ही स्व-पर-निर्णयरूप क्रिया के प्रति साधकतमता आती है। ऐसा जानन्दा चाहिये ।। ४ ।। ज्ञान में स्व-पर-व्यवसायात्मकता का समर्थन :--
सत्र-सव्यवसायस्वभावं समारोप तिरस्कारकत्वात् ॥ ५ ॥