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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र ६-७
संस्कृत टीका--ज्ञानस्यैद प्रमाणत्वं न जडरूपस्य सन्निकर्षादेरिति पूर्वमुक्त नच्च निश्चयात्मकमेव ज्ञानं प्रमाणं भवति नतु निर्विकल्पकं नापि अनिश्चयात्मकं ज्ञानं प्रमाणं संभवति इत्येवं प्ररूपयितुकामः सूत्रकारः तद्व्यवसायस्वभावमित्यादि सूत्र प्रतिपादयति-प्रमाणभूतं सत्-ज्ञान व्यवसायात्मकं भवति संशयविपर्ययानध्यवसायरूप समारोप तिरस्कारकत्वात यत् समारोप तिरस्कारकं न भवति न तद्व्यवसाय स्वभावं भवति यथा निर्विकल्पकम्', समारोपतिरस्कारकं च ज्ञानं तस्मात्तद्व्यवसाय स्वभावम् ।
हिन्दी व्याख्या-इन सुत्र द्वारा सुत्रकार ने प्रमाणभून ज्ञान में स्व-पर-व्यवसायात्मकता सिद्ध की है, और यह व्यवसायात्मकता उसमें संशय, विपर्यय और अनध्य वसाय रूप समारोप का वह विरोधी होता है इस कारण से आती है ।
प्रश्न-जब ज्ञान को आपने प्रमाणभुत माना है तो फिर निविकल्पक ज्ञान भी ज्ञान ही है उसे भी प्रमाणभूत आपको मानना चाहिये । तथा च फिर इसका मो आहेत मत में निरसन प्रमाणता की कोटि से किया गया है सो क्यों किया गया है ?
उत्तर-ठीक है। परन्तु हमने जो ज्ञान को प्रमाण माना है सो निर्विकल्पक ज्ञान को या अनिश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना है, किन्तु निश्चयात्मक ज्ञान को ही प्रमाण माना है। क्योंकि जब ज्ञान में प्रमाणना का कथन किया गया है तब वहाँ पर "स्वपर व्यक्मायि" इन विशेषणां में उसे विशेषित किया गया है। इसका सामान में कार-व्यवसायात्मकता उसके द्वारा समारोप के निराकरण किये जाने के कारण से ही आती है । निर्विकल्पक ज्ञान समारोप का विरोधी होता नहीं है । अतः उसमें व्यवसायात्मकता कैसे आ सकती है ? अर्थात् नहीं आ सकती है । निश्चयात्मक शब्द का अर्थ है सविकल्पक । सविकल्पक ज्ञान में ही नाम-जाति आदि रूप विकल्प उठते हैं, निर्विकल्पक ज्ञान में नहीं, अतः वह प्रमाण नहीं माना जा सकता है । क्योंकि उसके द्वारा संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रूप समारोप का निराकरण नहीं होता है । अतः ऐसा मानना चाहिये-कि जो संशयादि रूप समारोप का निराकरण करने वाला होता है, वही निश्चयात्मक होता है। ऐसा वह निश्चयात्मक सम्यगज्ञानरूप सवि ज्ञान ही है ? मिथ्याज्ञानरूप निर्विकल्पक ज्ञान या सन्निकर्ष आदि नहीं। तात्पर्य इस सूत्र का यही है कि सम्यग्ज्ञान में व्यवसायात्मकता समारोप का विरोधी होने के कारण से है। अतः जो समागेप का विरोधी होगा, वही व्यवसायात्मक-स्व-पर का निश्चायक होगा । निर्विकल्पक या सन्निकर्प ऐसे नहीं हैं। अतः वे व्यवसायात्मक भी नहीं हैं, और व्यवसायात्मक न होने से वे प्रमाण भी नहीं हैं ॥ ५ ॥
सत्र-संशय विपर्ययानध्यबसायभेवाद त्रिविधः समारोपः ॥ ६ ॥ (उत्तानार्थमिवं सूत्र) सूत्रार्थ-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के भेद से समारोप तीन प्रकार का है । सूत्र–विरुद्धानेककोटिस्पशिज्ञान संशयः ।। ७ ॥
संस्कृत टीका-एकस्मिन् धमिणि अनिश्चितानां विरुद्धानां च अनेककोटीनामवगाहनशील यज्ज्ञानं स संशय इत्युच्यते । यथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा, स्थाणु पुरुष साधारणोध्यतादि दर्शनात् तद्विशेषस्य च वक्र कोटरशिरः पाण्यादेः साधक प्रमाणस्याभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य, एवं च उभय कोटि साधारण धर्मदर्शनं विशेषधर्मादर्शनं च संशयजनकं भवति, विशेषधर्मदर्शनं तु संशय निवर्तकं भवति इति बोध्यम् ।