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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, सूत्र १
गृहीत हुए विषय के यथार्थ निश्चायक नहीं होते हैं । अतः ज्ञान होने पर भी ये सत्यशान से बहिभूत माने गये हैं । इनका लक्षण आगे स्वयं सूत्रकार प्रकट करने बाले हैं । विपर्यय ज्ञान द्वारा जो विषय गृहीत किया जाता है, वह उत्तरकाल में प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा बाधित होता है, इसलिये यह भी यथार्थ ज्ञान स्वरूप से बहिर्भूत माना गया है।
प्रश्न-आपने जो ऐसा कहा है कि--स्व-पर-व्यवसयि अबाधित ज्ञान ही प्रमाण है, सो सूत्र में तो यही पद का वाचक एवकार प्रयुक्त हुआ नहीं है । फिर ज्ञान ही प्रमाण है--ऐसा आप कैसे कहते हैं ?
उत्तर–जितने भी बाक्य होते हैं वे सब अवधारण सहित ही होते हैं । अतः यहाँ पर भी ऐसा ही समझना चाहिये।
प्रश्न- ऐसा अवधारण हो नहीं सकता, क्योंकि अज्ञानरूप सन्निकर्षादि भी प्रमितिजनक होने से प्रमाणभूत माने गये हैं ?
उत्तर-अज्ञानरूप सनिकादिकों में प्रमिति क्रिया के प्रति साधबातमता नहीं है। अतः उनमें प्रमाणता नहीं मानी गई है । प्रमिति क्रिया के प्रति साधकतमता तो चेतन के धर्मरूप ज्ञान में ही मानी गई है । अतः उसी में प्रमाणता कही गई है ।
प्रश्त--निर्विकल्पक दर्शन जिसे बौद्धों ने प्रमाणभूत माना है उसे यहाँ पर प्रमाणता से बहिर्भूत क्यों किया गया है ?
उत्तर–बौद्ध मान्यता के अनुसार यह निविकल्पक दर्शन बाल्पना से रहित होता है, उसमें "यह अमुक पदार्थ है, अमुक जाति का है, अमुक वर्ण वाला है" इत्यादि रूप कल्पना नहीं होती है । अत: कल्पनाविहीन होने से यह पदार्थ का निर्णायक नहीं हो सकता है, पदार्थ का निर्णायक तो सविकल्पक ज्ञान ही होता है । इसलिये सविकल्पक ज्ञान को ही प्रमाणभूत माना गया है । स्व-पर व्यवसायि अबाधित ज्ञान सविकल्पक है, इसी कारण उसमें प्रमाणता का समर्थन किया गया है।
. प्रश्न यहाँ पर "प्रमाणं स्वपर-ध्यवसायि अबाधितं मानम्" इतना कथन तो प्रतिज्ञारूप है। क्योंकि धर्म और धर्मी के समुदायरूप कश्रन का नाम प्रतिज्ञा है । "प्रमाणम्" यह धर्मी-पक्ष है । और "स्व पर व्यवसायि अबाधितं ज्ञानम्" यह विधेयरूप साध्य है । पर इतने कथन मात्र से तो स्वपक्ष की सिद्धि होती नहीं है । इसके लिये तो हेतु का प्रयोग होना चाहिये पर वह हेतु यहाँ सूत्रकार ने सूत्र में प्रकट नहीं किया है । अतः साधनशुन्य होने से आप अपने कथन की सिद्धि और समर्थन कसे कर सकते हैं ?
उत्तर-शङ्का उचित है । परन्तु यदि इस पर अच्छी तरह से विचार किया जावे तो समाधान इसी सूत्र में निहित है, वह किस प्रकार से है ? तो सुनिये-हम बताते हैं यहाँ "स्व-पर-व्यवसायि अबाधित ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वात्" इस प्रकार का अनुमानप्रयोग सूचित किया गया है । अतः यह हमारा कथन साधनविहीन नहीं है।
प्रश्न-'प्रमाणम्' यह पद तो प्रथमान्त विभक्ति वाला है और हेतुपरक पद पञ्चमी बिभक्ति बाला होता है । फिर इसे आप पञ्चमी विभक्ति वाला कैसे बना सकते हैं ? तथा-"प्रमाणम्" यह धर्मी है और उसी धर्मी को आप जब हेतु बनाते हैं तो यह प्रतिज्ञा का एकदेश होने के कारण असिद्ध हेत्वाभास रूप हो जाता है, फिर इससे स्वसाध्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी?