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श्यामरत्न : न्यायरत्नावली दीका : प्रथम अध्याय, मंगलाचरण इस ग्रन्थ का अध्ययन उनके ही लिये लाभप्रद होगा जो व्याकरणादि ग्रन्थों के अध्ययन से परिकमित बुद्धि वाले होते हुए भी न्यायशास्त्र के तात्त्विक ज्ञान से विहीन हैं। ऐसे जन हो यहाँ बाल शब्द से गृहीत हुए हैं। वे इसके अध्ययन से “प्रमाण का क्या स्वरूप है. प्रमेय किसे कहते हैं, यह कितने प्रकार का होता है' इत्यादि न्यायशास्त्र प्रतिपादित तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जान सकेंगे । अतः जो न्यायशास्त्र में परिकर्मिन मतिवाले हैं, उनके लिये इस ग्रन्थ की रचना नहीं की गई है। यही बात "बालानां तत्व गोधाय न्यायरत्नं विरक्यते” इस उत्तरार्थ द्वारा प्रकट की गई है।
प्रश्न-पूर्व आचार्यों द्वारा प्रणीत अनेक मायग्रन्थ प्रमाण प्रमेय आदि के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले तो हैं ही, तब फिर आपने इस नवीन न्यायरत्न ग्रन्थ का निर्माण क्यों किया है ? क्योंकि उनसे ही उन्हें प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता शदि के स्वरूप का ज्ञान यथार्थ रूप से हो ही जावेगा।
उसर. यद्यपि यह कहना ठीक है परन्तु पूर्वाचार्यों द्वारा विरचित न्याय ग्रन्थ कितने ऐसे हैं जो बिस्तृत हैं, कितने ऐसे हैं जो बिलकुल संक्षिप्त है । अतः उनमें बालजनों का प्रवेश नहीं हो सकता है । इसलिये सुगमता से बालजनों का प्रवेश न्यायशास्त्र में हो जाय इसके लिये मध्यम मार्ग रूप से इस ग्रन्थ का निर्माण किया गया है ।
प्रश्न-यह बात आपने कैसे जानी ?
उत्तर---"बालानां तत्त्वबोधाय" इस तृतीय चरण से जानी है। क्योंकि बालजनों को न्याय शास्त्र का तत्त्वबोध ऐसे ही मार्ग से हुआ करता है। क्योंकि अल्पबुद्धि वाले होने से न उनका प्रवेश विस्तृत न्याय ग्रन्थों में हो सकता है, और न संक्षिप्त न्यायग्नन्थों में ही हो सकता है। क्योंकि संक्षिप्त में गूढार्थ छिपा रहता है।
प्रश्न- इस ग्रन्थ का "न्यायरत्न" ऐसा नाम क्यों हुआ है ?
उत्तर-इस ग्रन्थ द्वारा प्रधान रूप से न्यायशास्त्र में प्रतिपादित प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण, प्रमिति, प्रत्यक्ष, अनुमान थादि के स्वरूप पर सुन्दर ढंग से विस्तार के साथ विचार किया गया है। अतः यह विचार मौलिक होने के कारण रत्नरूप माना गया है क्योंकि "स्व जाती जाती यमुस्कृष्टं तद्रत्नमिहोच्यते" इस उक्ति के अनुसार बालजनों को पूर्वोक्त तत्त्व समझाने में यह उन ग्रन्थों के बीच में अपना उपकारक होने के कारण रत्न के जैसा श्रेष्ठमान्य किया जायगा अतः "न्यायरत्न" ऐसा यह इसका नाम सार्थक है।
इस ग्रन्थ के निर्माता मुनि घासीलाल जी हैं। इस ग्रन्थ को जो 'न्याय रत्न" इस नाम से अलंकृत किया गया है, उसका कारण प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों द्वारा प्रमेय पदार्थों का यथार्थ स्वरूप कथन इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्रकार करेंगे ऐसा है।
संस्कृत टीका-तत्र शास्त्रकाराः खलु ग्रन्थे मङ्गलत्रयं कुर्वन्ति "अन्यादी अन्यमध्ये अन्यान्ते च मङ्गलं कुर्यात्" इति शिष्ट्रवचनात् तत्र प्रारब्धुमिष्टस्य ग्रन्थस्य निर्विघ्न समाप्त्यर्थ ग्रन्थादौ मङ्गलं क्रियते, तस्यैव ग्रन्थस्य प्रचार प्रसार द्वारा स्थिरत्व सम्पादनाथं मन्थस्य मध्ये मङ्गलं विधीयते, एवं शिष्य-प्रशिष्य परम्परा प्रचारार्थ ग्रन्थस्यान्ते मङ्गलं क्रियते इत्यवगन्तव्यम् । तथा चोक्तकरूपसूत्र-तं मंगलमाईए मज पजसए म सत्थस्स।
परमं ताहि मिट्टि गिबिग्घ पारगमगाय ॥१॥ तस्वय ग्वायं मशिसमयं अंतिमपि तस्व। अयोच्छिन्न निमित्तं सिस्स-पसिस्साइ सस्स ॥२॥