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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : प्रथम अध्याय, मंगलाचरण
पदामंग्यते-प्राप्यते स्वर्गो मोक्षोषाऽनेनेति मङ्ग-धर्मः, लाति-गृहणातीप्ति मङ्गलम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रारिप्सित ग्रन्थ के आदि में किया गया इष्ट देवता का नमस्काररूप मङ्गलाचरण ग्रन्थ निर्माण काल में आगत समस्त विध्नों का निवारव एवं ग्रन्थसमाप्तिजन्य सुख का प्रदाता होता है। यही बात मन्थकार ने "स्वोपज्ञ प्रारिप्सित न्यायरल नामक" आदि समासान्त पद द्वारा “समाप्त्यर्थ " पद तक स्पष्ट की है ।
प्रश्न-मङ्गलाचरण मन से और काय से नहीं किया जाता है क्या ? उत्तर-किया जाता है।
प्रश्न-तो फिर सबसे उत्तम तो यही था कि वे उसे ही यहाँ पर कर लेते । इस वाचनिक मङ्गलाचरण करने के प्रयास से क्या लाभ ?
उत्तर-यद्यपि मंगलाचरण मन, बचन और काय इन तीनों से भी किया जाता है। परन्तु यहाँ पर जो ग्रन्थकार ने ऐसा वाचनिक मंगलाचरण किया है वह शिष्यजनों को शिक्षा देने के लिये ही किया है। शिष्यजन जब भी नवीन ग्रन्थ का निर्माण करें तो वे अवश्य ही इस प्रकार के मंगलाचरणपूर्वक ही उसका निर्माण करें।
प्रश्न–क्या मन से या काय से किये गये मंगलाचरण से प्रारिप्सित मन्थ की समाप्ति और विघ्नों का विधात नहीं होता है ?
उसर होता है। प्रश्न---तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया ? उत्तर--कौन कहता है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया, अवश्य ही किया है। प्रश्न- तो फिर यह पिष्टपेषणरूप वाचनिक मङ्गलाचरण क्यों किया गया? उत्तर-शिष्य परम्परा को शिक्षा देने के लिये ही किया गया है।
प्रश्न-मनःकृत मङ्गलाचरण से और कायकृत मङ्गलाचरण से क्या शिष्यजनों को ऐसी शिक्षा नहीं मिल सकती है ?
उत्तर- हाँ, नहीं मिल सकती है । क्योंकि ऐसा वह किया गया मंगलाचरण उनके परोक्ष में होता है । अतः प्रत्यक्ष रूप से शिष्य परम्परा को मंगलाचरण करने की शिक्षा मिलती रहे इसके लिए ग्रंथकार ने यहाँ "वईमानं जिन मत्वा" इत्यादि रूप से वाचनिक मंगलाचरण किया है। यही बात "महावीर देवाः समस्कारात्मकं मङ्गल शिष्य परम्पराणां शिक्षार्थम्" आदि पदों द्वारा स्पष्ट की गई है।
अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर का ही दूसरा नाम वर्द्धमान है । इन्होंने आत्मा की विभाव परिणतिरूप राग-द्वषादि जैसे प्रबल योद्धाओं को आन्तरिक सेना पर विजय प्राप्त की है। अतः इन्हें जिन कहा गया है। "जपति रागावीन् शत्रून् असो जिनः । ये सामान्य केवली नहीं थे किन्तु विशिष्ट केवली थे। इसी कारण इन्होंने केवलज्ञान जैसे त्रिभुवनभासक ज्ञान को प्राप्त कर युगपत् चराचर समस्तशयों को और उनकी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को हस्तामलकवत् साक्षात् अपने शाता द्रष्टा स्वभाव में स्थित रहते हुए जानकर और देखकर भव्य जनता को धर्मदेशना दी है। तथा वर्द्धमान प्रभु की इस धर्मदेशना को यथाक्षयोपशम हृदय में धारण कर गौतमादि गणधरों ने उसका प्रसार और प्रचार किया है। अतः चतुर्विधसवरूप तीर्थ के कर्ता की अपेक्षा श्री वर्द्धमान स्वामी को और आद्यगुरु की अपेक्षा गौतम गणवर को यहाँ नमस्कार किया गया है।