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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन कबीर ने अपने काव्यादर्श के बारे में लिखा है - प्रेम भगति ऐसी कीजिए, मुखि अमृत बरिखै चन्द। आपहि आप विचारिये, तब केता होई आनन्द रे।। तुम्ह जिनि जानो गीत है यह निजब्राह्म विचार। केवल कहि समझाइया, आतम साधक सार रे।।' "मेरे इस पद को तुम साधारण गीत के रूप में मत जानो। इसमें मेरा "ब्रह्म विचार" निहित हैं। इसमें मैंने आत्म-साधना का सार भरकर उसे अपने शब्दों द्वारा केवल प्रत्यक्ष कर देने की चेष्टा की है। इस "ब्रह्म विचार" में आने वाले अलौकिक आनन्द को उन्होंने "आपदि आप विचारिये तब केता होइ आनन्द रे” कहकर स्पष्ट कर दिया है। इससे प्रतीत होता है कि वे अपनी इस प्रकार की रचना को आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति से अभिन्न रूप में देखते हैं। साथ ही वे इस विचार से भी अनुप्राणित जान पड़ते है कि “यदि मैं अपनी साखिों की रचना करूँगा तो सम्भव है कि उससे प्रेरणा पाकर भवसागर में पड़े हुए दुःख सहने वाले लोगों को उसके पार तक पहुँचने का अवसर मिल जाय" - हरिजी यहै विचारिया साषी कहौ कबीर । भौ सागर में जीव हैं जे कोई पकडै तीर ।।' इसी प्रकार वे कविता को जग जंजाल के गुणगान का माध्यम बनाने के विरोधी थे। उनकी दृष्टि में वही वास्तविक कवि है, जो ब्रह्म के साक्षात्कार का गायन अथवा रचना करे । कवि के शब्दों में ही - जग भव का गावना गावै। अनुभव गावै सो अनुरागी है। भाषा के विषय में भी कबीर का अपना आदर्श है । वे संस्कृत भाषा की तुलना में लोकभाषा या साधारण बोलचाल की भाषा को अधिक उपयुक्त मानते हैं । संस्कृत एक सीमित समूह की भाषा है; अत: उससे केवल कुछ व्यक्ति ही 1. कबीर ग्रन्थावली, का. ना.प्र. स. पद 5 पृष्ठ ४) 2. यही पृष्ठ 56
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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