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महाकवि भूघरदास :
लाभ उठा सकते है। जबकि देशीभाषा जनता की भाषा है; अत: सभी के लिए सुगम एवं सरल सिद्ध हो सकती है।
कबीर संस्कृत को कूप जन ने स्पान सीमित मागते हैं या ना कल साधारण की बोली, को वे सरिता के स्वच्छ बहते हुए जल के समान उपयोगी मानते हैं -
"संसकीरत है कूपजल भासा बहता नीर" कबीर का भाषादर्श यह भी सिद्ध करता है कि वे साहित्य और कला को जनता से दूर की वस्तु या जन-जीवन से भिन्न नहीं मानते हैं। उनके अनुसार जो भाषा या काव्य जनता की पहुच से दूर है, उसे वे उपयोगी नहीं मानते हैं ।
सन्त नानक शब्द रचना या साखी रचना को ब्रह्म के प्रति वास्तविक या सच्ची प्रीति नहीं मानते हैं। उनके मत से शब्दों और साखियों में अभिव्यक्त प्रेम वास्तविक नहीं है, वह केवल बाह्य दिखावा है । छन्दों में हृदय के सच्चे भावों की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। इसीलिए इनका रचयिता निश्चय ही यमपुर में दुःख का भागी बनता है -
शब्दन साखी सची नहीं प्रीति।
जमपुर जाहिं दुखों की रीति ॥ इसी प्रकार उन्होंने पुस्तकज्ञान, वेद, कतेब आदि की निन्दा की है .
वेद कतेब तिनि मोहिआ से फूफ सुणावहि लोई। नरक सुर्ग पत्थर दिसै चिहु गुण सहसा होइ।
पूछ हूँ वेद पंढतिआ विणु नावै मुठी रोई॥ सन्त मलूकदास की दृष्टि में वही रचना कविता है, जिसमें उस ब्रह्म का गुणगान हो; जिसके कारण संसार में अस्तित्व प्राप्त हुआ है । वे प्राकृत विषयों पर काव्य रचना को हेय समझते हैं -
अदम कवित्त का जिसकी कविताई करूँ याद करूँ उसको जिन पैदा मुझे किया है। गर्भ बास पाला आतस में नहि जाला,
तिसकों मैं बिसा तो मैं किसकी आस जिया हूँ।' 1. प्राणसंगली पृष्ठ 24
2, वही पृष्ठ 217 3. मलूकदास की बानी पृष्ठ 31.