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महाकषि भूधरदास :
विचार और भावनाएँ रहती हैं। उनको अभिव्यक्ति देकर कवि जहाँ एक ओर हृदय का भार हल्का करता है, तो दूसरी ओर एक दिव्य आनन्द का अनुभव करता है। जहाँ एक ओर उसकी रचना स्वान्तःसुखाय होती है, तो दूसरी ओर उसमें समाज कल्याण या विश्वकल्याण की भावना भी निहित होती है। इसी प्रकार एक वर्ग नैतिकता आदि के लिए काव्य को प्रयोजनीय मानता है, तो दूसरा इसके विरूद्ध है । पर इतना निर्विवाद है कि काव्य या साहित्य हमारी अनुभूतियों को तीव्र करने के लिए अधिक प्रयोजनीय है। जीवन को समुन्नत, सुसंस्कृत तथा परिष्कृत बनाने के लिए काव्य का प्रमुख योगदान है।
भारतीय एवं पाश्चात्य मनीषियों ने जिन काव्यादर्शों एवं काव्यप्रयोजनों की चर्चा की । हिन्दी के सन्त कवियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया; क्योंकि सन्तों के लौकिक ऐपवर्ग एवं यश बी लालसा नहीं थी ! जिन सन्तों ने संसार को तुच्छ एवं सारहीन समझकर उसका परित्याग कर दिया था, उनके काव्य द्वारा लौकिक व्यवहार एवं यशोपार्जन की शिक्षा महत्त्वहीन थी। सन्तों ने अपने समय के किसी प्रचलित आदर्श को ग्रहण नहीं किया। उन्होंने काव्यशास्त्र, छन्द, पिंगल आदि के नियमों का न तो अध्ययन किया था और न उन्हें इनमें कोई आस्था थी। इसके विरूद्ध उन्होंने काव्य और काव्यशास्त्र के अन्य आवश्यक तत्त्वों की निन्दा एवं आलोचना की। साथ ही काव्यशास्त्र के नियमों की परवाह किये बिना उन्होंने तीव्र अनुभूति एवं गहन चिन्तन के आधार पर काव्य रचना की ।
सन्तों ने अपनी काव्य रचना द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि अनुभूति या भाव ही काव्य की आत्मा है और काव्य की आत्मा दृढ़ और उच्च है तब फिर भाषा, शैली, अलंकार आदि रूप बाह्य वातावरण एवं अन्य उपकरण तो स्वत: जुट जायेंगे। इसीलिए सन्तों ने काव्य को कला की दृष्टि से नहीं देखा
और न ही उन्होंने काव्य एवं कवि को सम्मान्य ही माना । इसीलिए कबीर तो "कवि कवीनै कविता मूर्य" ' तक कह देते हैं। पर फिर भी उन्होंने काव्य को स्वाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, इसलिए उनका काव्य अध्ययनीय अवश्य है। सन्त कवियों की रचनाओं में उनके काव्यविषयक आदर्श मिलते हैं।
1. कबीर ग्रन्थावली, का. ना. प्र. स. पद 317 पृष्ठ 195