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एक समालोचनात्मक अध्ययन
__ काव्य में अनुभूति को प्रकट करने की कला का भी कम महत्त्व नहीं है। भाव और विचार के साथ कवियों का कला तथा शैली पक्ष भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। अभिव्यक्ति की कला साधन ही है, साध्य नहीं। डॉ. नगेन्द्र कवियों की कला के सम्बन्ध में लिखते हैं कि वास्तविक रूप में तो किसी कवि की कला उसकी सम्पूर्ण आत्मा की अभिव्यक्ति होती है। विभिन्न अनुभूतियों से निर्मित उसका आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रयत्न करता हुआ सहजरूप में रंग, रेखा, शब्द आदि में बंधा जो आकार प्राप्त कर लेता है, वही उसकी कला है।"। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आगे लिखा है . “आत्मा के स्वरूप को समझने के लिए शरीर का अध्ययन जितना महत्व रखता है उतना महत्त्व हमें इस बाह्य प्रयत्न को अवश्य देना पड़ेगा 1 सन्तों के काव्य का कलापक्ष उनकी अनुभूति की उज्ज्वलता के कारण स्वत. ही निखर आया है। प्रतीक योजना, अलंकार योजना, उनके काव्य का स्वाभाविक सौन्दर्य बन गयी है। भाषा के निखार पर उनका ध्यान बिल्कुल ही नहीं था। उनकी भाषा अनगढ़ सौन्दर्य को अपने में समाए हुए थी। कई जगह अनुभूति की गहनता में भाषा टूटी फूटी, अव्यवस्थित भी हो गयी है, किन्तु वह अपना अर्थ सुविज्ञ पाठक तक प्रेषित कर ही देती है। अभिप्राय यह है कि काव्य रचना संतों का लक्ष्य कभी नहीं रहा, सन्तों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जो कुछ अभिव्यक्त किया, वह अनुभूति इतनी तीव्र और जनमानस को स्पर्श करने वाली हुई कि जनजीवन में सन्तों की अभिव्यक्तियों काव्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। साथ ही जो आचार्य ब्रह्मानन्द सहोदर स्वरूप रस की सहजानुभूति को अर्थात् अनुभूति पक्ष को अभिव्यक्ति पक्ष से अधिक मूल्यवान मानते हैं, उनकी दृष्टि में सन्त काव्य उत्कृष्ट कोटि की भावानुभूति मानी गयी; किन्तु जो आचार्य शब्द शिल्प, अलंकार और बाह्य रूप सज्जा को ही काव्य का प्रमुख लक्षण मानते हैं, उनकी दृष्टि में सन्तों की कविता काव्य की कोटि में स्थान नहीं पा सकी । इसीलिए कुछ विद्वान सन्त काव्य को साहित्य मानते हैं, जबकि कुछ उसे साहित्य की सीमा से बाहर रखते हैं।
विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार काव्यरचना का मूलाधार “स्वान्तःसुखाय” है। प्रत्येक रचना के मूल में कवि की अपनी अनुभूति, 1. देव और उनकी कविता डॉ. नगेन्द्र पृष्ठ 174 2. वही पृष्ट 174