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एक समालोचनात्मक अध्ययन
एवं सारी अपनर को भूलकर किसी गनी किशोरी की बलि कोमलता से गद्गद्, लाज से विभोर और प्यार से विह्वल हो उठते हैं। प्रियतम के महल की ओर अग्रसर होते हुए उनके पैर सौ -सौ बल खाने लगते हैं, हृदय में तरह तरह की शंकाओं का आन्दोलन उठने लगता है -
मन प्रतीत न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग।
क्या जाणौं उस पीव सू, कैसे रहसी रंग ॥ अन्त में मधुर मिलन के वे क्षण भी आते हैं ; जब कि उसकी सारी शंकाएँ, सारी लज्जाएँ और समस्त तर्क वितर्क रस के प्रवाह में बह जाते हैं -
जोग-जुगत री रंग महल में, पिय पाये अनमोल रे।
कहत कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥ इस प्रकार संत काव्य में श्रृंगार की दोनों अवस्थाओं - विरह और संयोग का चित्रण अनुभूतिपूर्ण शब्दों में हुआ है।
6. आचरण या व्यवहार की महत्ता तथा कथनी करनी का ऐक्य - सन्त आचरण या व्यवहारवादी है । उनकी किसी व्यक्ति, वस्तु , आस्था और विश्वास की सबसे बड़ी कसौटी व्यवहार है। कथनी की अपेक्षा करनी और रहनी का मूल्य अधिक है। व्यक्तिगत स्तर पर मनुष्य की पहचान रहनी से होती है और सामाजिक स्तर पर उसकी करनी से । यही रहनी और करनी-उसके समस्त अन्तर्बाह्य आचार को रूप देती है। सन्त विचारहीनता को उतना बड़ा दोष नहीं मानते, जितना आचारहीनता को। उनकी सबस के लिए एक मात्र कसौटी आचरण ही है । जो व्यक्ति कथनी और करनी में अन्तर रखते हैं उनके लिए कबीर का कथन है - (1) जैसी मुखः नीकसै, तैसी चालें नाहि ।
मानुख नहीं ते स्वान गति, बांधे जमपुर जाहिं ।' (2) कथणी कथी तो क्या भया, जे करणा ना इहराइ ।
कालबूत के कोट ज्यू, देखत ही हि जाइ ।'
सन्तों ने कथनी और करनी में समानता का प्रचार किया । कथनी - करनी की एकता के कारण ही उन्होंने साधु सन्तों को अधिक सम्मान का पात्र घोषित
1, कबीर ग्रन्थावली,तिवारी पृष्ठ 242 साखी 9