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महाकवि भूधरदास :
है। विरह ज्वर ऐसा तीव्र है कि वह आठों प्रहर शरीर को विदग्ध किए रहता है। विरह में कबीर का शरीर रक्त, मांस रहित हो गया है । कबीर के विरह में इतनी तीव्रता है कि वह जिस वृक्ष के नीचे शीतलता पाने के लिए बैठते हैं, वह स्वयं जल जाता है। 'दादू की विरहिणी मौन और शान्त है । उसकी दशा बड़ी शोचनीय और दयनीय है। प्रिय का पथ देखते देखते उसके केश श्वेत हो गए। सुन्दरदास की विरहिणी जिसमें से धुंआ भी न निकलें - इस प्रकार अन्दर ही अन्दर जलकर भस्म हो जाना चाहती है। दरिया साहब ने विरहिणी आत्मा के वन वन भटकने की कल्पना की है । वह सतत् प्रियतम की खोज में अनुरक्त रहती है । ' दरिया साहब (मारवाड़ वाले) ने विरह व्याकुल आत्मा के लिए ऐसी व्यथा की कल्पना की है कि उसका शरीर पीला पड़ गया है, मन का माधुर्य समाप्त हो गया है, दिन रात नींद नहीं आती, भूख विलीन हो गई है।'
इन सन्त कवियों ने जहाँ अपने अज्ञात प्रियतम के प्रति आत्मविभोर होकर विरह और व्यथा का वर्णन किया है, वहाँ रागात्मक तत्व अपनी पूर्ण तन्मयता और हृदयस्पर्शता के साथ साकार हो उठा है । उनके विरह के पदों में मीरा की सी तन्मयता, सूर की सी सरलता और विद्यापति का सा सौन्दर्य है । कबीर जैसा अक्खड़ भी विरह वेदना से त्रस्त होकर सौ सौ आँसू बहाने लगता है। विरह भावों की तीव्रता निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है - (1) बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन ., मन नाहिं विश्राम ।। (2) अखियाँ तो झाई परी, पंथ निहारि निहारि ।
जीभडियाँ छाला पड़या, नाम पुकारि पुकारि ॥ आइ न सकौं तुझ पै, सकूँ न तुज्झ बुलाइ । जियरा यौही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ ।।
तीव्र विरह वेदना की अनुभूतियों के अनन्तर इन कवियों के भावुक जीवन में मिलन की घड़ियों का भी आगमन होता है । वे अपना सारा पौरुष, सारा गर्व 1. सन्त सनी संग्रह भाग - 1 पृष्ठ 17/27 2. वही पृष्ठ 812 3. वही पृष्ठ 109/2
2. वही पृष्ठ 128/4 5. वही पृष्ठ 145/5