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एक समालोचनात्मक अध्ययन
13. योग साधना - सन्त कवियों ने योग साधना को ईश्वर प्राप्ति का एक अनुपम साधन माना है । सन्त सुन्दरदास ने योग के भेदों का सविस्तार वर्णन किया है । नाथपंथी योगियों की साधना पद्धति हठयोग की थी किन्तु सन्त कवियों ने अष्टांग योग को अधिक महत्त्व दिया है। सन्त हठयोगियों की तरह देह को “सब कुछ न मानकर “कुछ भी नहीं मानते हैं। सन्त शरीर को साध्यसिद्धि का साधन मानकर भी अन्तत: इसे अनावश्यक बतलाते हैं। वे प्रत्येक शरीरधारी को दुखी ही देखते हैं .
तन धरि सुखिया कोई न देखा, जो देखा सो दुखिया हो'1 अनिर्वचनीय तत्त्व की प्राप्ति के लिए कुण्डलिनी शक्ति की जागरण की आवश्यकता पड़ती हैं। यग विज्ञान के अनुसार हमारे मेरुदण्ड के छह चक्रों में सहस्त्रार चक्र या सहस्त्रदल कमल सबसे ऊपर है । मूलाधार चक्र के नीचे कुण्डलिनी शक्ति स्थित है । प्राणायाम की साधना से वह शक्ति प्रबुद्ध होकर क्रमशः विभिन्न चक्रों को पार कर सहस्त्रार चक्र में जाकर लोन हो जाती है। सहस्त्रार चक्र में कुण्डलिनी शक्ति के लीन होने पर दिव्य आनन्द का अनुभव होता है । कबीर ने सहस्त्रदल कमल में झरने वाले अमृत का पान करने का बारम्बार उपदेश किया है -
अवधू गगन मण्डल घर कीजै। अमृत झरै सदा सुख उपजै बंक नाव रस कीजै ॥ मूल बांधि सर गगन समादा सुषुमन यों तन लाली। काम क्रोध दोऊ भया पलीता तहां जोगणी आगी॥ मनवां जाय दरीबै बैठक मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाही सबद अनाहद बागा ॥ यहा गगन मण्डल से तात्पर्य सहस्त्रदल कमल (ब्रह्म निवास), बंकनाल = वक्र चन्द्रमा (अमृतागार) जोगणी = कुण्डलिनी शक्ति । कामक्रोधादि के भस्म होने पर कुण्डलिनी शक्ति जग जाती है और मन रसमग्न हो जाता है।
सन्तों की योग साधना के सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित "हिन्दी साहित्य का इतिहास" का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है
___ “सन्त (कवियों) साधकों में एक वर्ग ऐसा है जो योग साधना से पूर्णतया प्रभावित है । सोह, हंस, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, सुरति, निरति आदि का उल्लेख 1. कबीर ग्रन्थावली, तिवारी, पृष्ठ 53 पद 90 2. कबीर ग्रन्थावली पद 70