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महाकवि भूघरदास :
बल दिया जाता है। इस सहज समाधि में मनुष्य संसार में साधारण रूप से रहते हुए विधि निषेधों के चक्र में पड़ते हुए जगत के सभी दृश्यमान पदार्थों के रूप रंग को, सौन्दर्य को उस परमतत्व की ही अभिव्यक्ति समझकर आनन्दित रहता है और निरन्तर प्रभु का नाम जप करता रहता है । सन्तों की सहज साधना एवं सन्तों की पूर्ववर्ती साधना के सम्बन्ध में डा. राजदेवसिंह का यह कथन माननीय है - "सन्त मत के उद्भव के कुछ समय पहले से ही भारतीय सामन्ती समाज का ढाँचा ढीला पड़ने लगा था और धीरे-धीरे नई समाज व्यवस्था रूप लेने लगी थी। सामाजिक ढाँचे में घटित परितर्वनों के कारण सिद्धों द्वारा कल्पित
और समाज में व्यापक रूप से स्वीकृत आचरित मुक्त और मर्यादित भोगवाला सहज असहज बनता गया था। इस असहजता को सबसे पहले और सबसे
अधिक सही ढंग से आदि संत कबीर ने समझा था और उसके खिलाफ जोरदार •आवाज उठाई थी। सामन्ती समाज व्यवस्था के मृतमूल्यों और आचार विचारों
को निरर्थक सिद्ध करके, नए यग के अनुरूप नई आचार पद्धति को दृढमूल प्रतिष्ठा देने वालों में सन्त सर्वप्रथम और सर्वाधिक सचेष्ट थे । सन्तों के समय
और समाज के लिए सिद्धों को उन्मुक्त भोग और नाथों की हठसाधना दोनों असहज हो गए थे।"
आगे वे लिखते हैं - "सम्पन्न लोगों की मुक्त भोग बाली असहजता विपन्न वर्गों के लिए जिस तरह घातक सिद्ध हो सकती है, स्वेच्छा से विषयों का त्याग करने वाली सहजता उस तरह से सम्पन्न वर्गों के लिए घातक न होकर अनुकूल ही सिद्ध होती हैं । अत: सन्तों ने जिस सहज साधना का प्रचार किया है, वह अग्राह्य किसी के लिए नहीं है और अगर उसे अपना लिया जाए तो सुखद सभी के लिए है; उसी तरह जैसे मक्तभोग की सविधा में रहकर भी अगर कोई विषयों का त्याग कर देता है, मन को आडम्बरहीन तथा पवित्र बना लेता है तो उसका लाभ ही लाभ है।"
सन्तों की सहज समाधि के सन्दर्भ में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का निम्नलिखित कथन भी उल्लेखनीय है -
“सन्तों की नाम स्मरण - साधना इस प्रकार जप की विधि के स्वयं निष्पन्न होते रहने के कारण “अजपाजाप" के नाम से प्रसिद्ध है। इस समाधि का नाम भी इसके योगाभ्यासियों द्वारा प्रयास पूर्वक लगायी जानी वाली "समाधि" से भिन्न होने के कारण “सहज समाधि" कहलाता है।" 1. सन्तों की सहज साधना, डॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 10
2. वही पृष्ठ 11 3, सन्त साहित्य की रूपरेखा, आखर्य परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ठ 52