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एक समालोचनात्मक अध्ययन
35 है।' मन्नों की गलियों में प्राप्त प्रामा सम्बन्धी विचारों में बहुधा माया को झूठी, तत्त्वशून्य और आनी जानी कहकर हेय कहा गया है। साथ ही ईश्वर को परमसत्य मानकर उसे उपादेय कहा गया है -
दादू जनम गया सब देखतां, झूठी से संग लागि।
साँचे प्रीतम को मिलें भागि सकै तौ भागि ॥2 इस प्रकार सन्तों ने माया शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग करते हुए पर्याप्त निन्दा की है।
9. गुरु का महत्त्व - साधक के जीवन का परमोद्देश्य ब्रह्म साक्षात्कार है । ब्रह्म-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करने वाला, सांसारिक विघ्न बाधाओं से बचाने वाला मन पर नियन्त्रण करने का उपाय बताने वाला, अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने वाला तथा सच्चा ज्ञान देने वाला गुरु ही है। वह ज्ञानप्रदाता सद्गुरु किसी से भी तुलनीय नहीं है। प्राचीन साहित्य से लेकर सन्त काव्य तक सद्गुरु की महिमा का अटूट गान हआ है। आज भी सर्वत्र गरु महिमा के सम्बन्ध में सुना जाता है -
गुब्रह्मा गुरुर्विष्णुः , गुरु देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ कबीर तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हुए कहते हैं
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपकी,जिन गोविन्द दिया बताय ॥' साथ ही वे कहते हैं -गुरु की महिमा का कोई अन्त नहीं है अर्थात् उनकी महिमा अनन्त है, उन्होंने मेरे ऊपर अनन्त उपकार किया है। क्योंकि उन्होंने मेरे अगणित ज्ञान चक्षुओं को खोलकर असीम ब्रह्म का दर्शन कराया है(1) सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार ।
लोचन अनन्त उयाड़िया, अनन्त दिखावणहार ।।* 1. सन्तों की सहज साधना - डॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 231 2. दादू पृष्ठ 27:46 3. कबीरदास, सन्त सुधासार साखी 14 पृष्ठ 120 4. कबीर प्रन्यावली गुरुदेव को अंग पृष्ठ 1 (चौथा संस्करण)