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मोटी माया तजि गए, सूचिम लीए जइ । दादू को छूटै नहीं, माया बड़ी बलाई ।'
काम, क्रोध, और अहंकार के अर्थ में कबीर ने माया का प्रयोग किया है---
"माधौ कब करिहौ दाया । काम, क्रोध हंकार विपै नां छूटे माया” 2 सन्त साहित्य में आशा, तृष्णा, लोभादि के अर्थ में माया का प्रयोग होता है - थाकै नैन स्वन सुनि थाके, थाकी सुंदरि काया । जामन मरना ये दोइ थाके, एक न थाकी माया ।।
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अहंकार के लिए भी माया कहा गया है
महाकवि भूघरदास :
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"मैं अरू मोर, तोर तौं माया, जैहि बस कोने जीव निकाया" 4
इस प्रकार सन्तों ने माया को महाठगिनी मानते हुए नागिन, साँपिन, भुजंगी, चण्डाली, वेश्या, बालविधवा या बालरण्डा, बिलाई, विलैया आदि अनेक शब्दों का प्रयोग किया है।
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सन्तों के माया सम्बन्धी विचार पर्याप्त रूप में अद्वैत वेदान्त से प्रभावित है। दादू ने माया को समझाते हुए ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या मानने वाली अद्वैत वेदान्ती धारणा का पूरी तरह निर्वाह किया है। 'कबीर ने भी माया को कभी शुद्ध अद्वैत वेदान्तियों की तरह, ' तो कभी वल्लभ के शुद्धाद्वैत और निम्बार्क के द्वैताद्वैतवादी वेदान्त की तरह चित्रित किया है। संत रज्जब ने शांकर अद्वैत की ही तरह माया को असत् कहा है और संसार को मायादर्पण में ब्रह्म की छाया बताया है। " साथ ही माया के विषय में बातें पाण्डित्य एवं बुद्धिवाद से बोझिल नहीं हैं और इसीलिए वे सही अर्थों में वेदान्ती भी नहीं
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1. सन्त सुषासार, प्रथम खण्ड पृष्ठ 3300 साखी 18
2. कबीर ग्रन्थावली, तिवारी पृष्ठ 22 पद 36
6. दादू पृष्ठ 234-235 साखी 82-91
7. कबीर ग्रन्थावली, तिवारी पद 67 तथा 76
8. वही पद 57
9. सन्व सुधासार, प्रथम खण्ड पृष्ठ 514
3. वही पृष्ठ 52 पद 88
4. वही पृष्ठ 214 पद 32
5. सन्तों की सहज साधना - डॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 225 से 228 तक