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एक समालोचनात्मक अध्ययन
33 देखने मात्र से विष चढ़ जाता है। साथ ही वे कहते हैं कि मुग्ध मनुष्य कनक - कामिनी रूपी कालपाश को वैसे ही देख नहीं पाता; जैसे ऑखों के सामने जलती हुई आग को मोहपाश में बँधा हुआ पतंगा देखकर भी नहीं देख पाता
और उसमें कूदकर जल मरता है। ' दादू कनक और कामिनी को माया का प्रत्यक्ष विग्रह मानते हैं। उनके मत से यह सर्पिणी माया ही कनक कामिनी बनकर सबको इंसती फिरती है। ब्रह्मा, विष्णु महेश भी इस कनक - कामिनी की तृष्णा से अछूते नहीं है।' धन सम्पत्ति के अर्थ में माया शब्द का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ - 1 माया जोरि जोरि करै इकठी, हम खैहें लरिका व्यौसाई।
सी धन चोर मूसि ले जावै, रहा सहा ले आई जवाई ॥ 2 यह माया कहु कौन की, काकै संग लागी रे ।
गुदरी सी उठि जाइगो, चित चेति अभागी रे॥ 3 धन के अन्ये आपि न बूझाहु, काहि बुझावहु भाई।
पाया कारनि विद्या बेचहु, जनम अबिरथा जाई ।'
कुछ सन्तों ने माया का प्रयोग अनेक अर्थों में एक साथ ही किया है। उदाहरण के लिए सुन्दरदास का एक प्रयोग द्रष्टव्य है :
घर में बहुत भई माया तब तौ न फूल्यो अंग समाया। बहुरि त्रिया सौं बाधी माया सुन्दर छाँडि जगत की माया ॥'
इसमें माया क्रमश: धनसम्पत्ति, प्रेम एवं प्रपंच के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। इसी प्रकार दादू धन-सम्पत्ति के लिए मोटी माया तथा मान- प्रतिष्ठा के लिए सूक्ष्म माया का प्रयोग करते हैं
1. वही पृष्ठ 233 :9 2. वही पृष्ठ 39 पद 67 3. दादू पृष्ठ 249 साखी 41 4. कबीर ग्रन्थावली, तिवारी पद 164 पृष्ठ % 5. वही पद 96 पृष्ठ 191 6. वही पद 111 पृष्ठ 191 7. सन्त सुधासार, प्रथम खण्ड पृष्ठ 608 साखी 4