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एक समालोचनात्मक अध्ययन
29 6. अहंकार या मान तथा विषय-तृष्णा का त्याग • सन्तों का सहज निर्गुण ब्रह्म या राम है जो हृदय की पवित्रता तथा चित्त की निर्मलता के साथ इन्द्रिय-विषयों की आसक्ति तथा अहंकार के त्याग से प्राप्त होता है । उस परम प्रिय को पाने की पहली शर्त है आपा (मैं या अहंकार) का निश्शेष भाव से त्याग । कबीर के अनुसार अहंकार के रहते हुए हरि नहीं मिल सकता । हरि के मिलने पर अहंकार उसी प्रकार क्षीण हो जाता है, जैसे दीपक के देखते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है -
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि ।
सब अधियारों मिटि गया, दीपक देखा पाहिं ।' सन्तों के अनुसार निर्वाण पद पाने के लिए अपने में ही उत्पन्न होने वाले मिथ्या गर्व, गमान, मद, मत्सर आदि का त्याग तथा विनम्रता का होना आवश्यक
झूठा गर्व गुमान तजि, तजि आपा अभिमान।
दादू दीन गरीब हवै, पाया पद निर्वाण ॥' सन्त मान या अहंकार को माया के रूप में भी स्वीकार करते हैं ! दादू ने इस मान को सुषिम या सूक्ष्म माया कहा है और बताया है कि धन सम्पत्ति रूपी मोटी माया को तो लोग छोड़ देते है, पर मान- प्रतिष्ठा को वे नहीं छोड़ पाते हैं। ' कबीर भी यही मानते हैं कि विषय- तृष्णारूपी माया तो छोड़ भी दी जाती है, पर मान छोड़ते नहीं बनता। इस मान ने बड़े-बड़े मुनियों को भी ग्रस्त कर रक्खा है । यह मान सभी को खा जाता है। इसीलिए इस मान-अभिमान को छोड़ने का उपदेश संतों ने पग-पग पर दिया है।
सन्त विषय-तृष्णा को भी माया मानते हुए उसे मुक्ति की साधना में सबसे बड़ा बाधक मानते हैं। तृष्णा अर्थात् इन्द्रिय विषयों के उपभोग से कोई कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता है । तृष्णारूपी अग्नि तो विषय - भोगरूपी ईधन डालने से उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । सम्पूर्ण संसार इस तृष्णारूपी ज्वाला में जल रहा है। 1. कबीर ग्रन्थावली, पृष्ठ 166 साखी 1 2. दादू, पृष्ठ 366 साखी 7 3. कबीर ग्रन्थावली, पृष्ठ 330 साखी 18 4. कबीर ग्रन्थावली, पृष्ठ 335 साखी 3 तथाप पृष्ठ 234 साखो 14