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महाकवि भूधरदास : ज्यों तिल माहीं तेल है ज्यों चकमक में आग। तेरा साई तुज्झ में, जागि सके तो जाग। सब घट मेरा साइया, सूनी सेज न कोय।
बलिहारी वा घाट की, जा घट परघट होय।। सन्त मलूकदास कहते हैं -
नाहिं आतम जार्ग, मरे। कातू काल में यूई सरे ।। जैसे धन मठ नासतें नाहि नसैं आकास ।
तैसे देहर के नसे, नहि कछु साकों आस ।। सन्त सुन्दरदास जीव को ब्रह्म का अंश मानकर उसे अविनाशी बतलाते हैं
ना वह उपजै बीनसै, ना कबहु भरमाय।
अंश ब्रह्म का होइ रहे, ना आदै न जाय ।। पुनः कबीर का यह कथन भी माननीय है -
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तत कहयौ गियानी ॥ ____4. भक्ति एवं प्रेम - सन्त मत के अनुसार भक्ति आडम्बर विहीन होती है ; इसीलिए सन्त काव्य में नवधाभक्ति का कर्मकाण्ड सम्मत एवं परम्परा समर्थित रूप नहीं मिलता। महर्षि शाण्डिल्य के अनुसार “सा परानुरक्तिरीश्वरे" एवं देवर्षि नारद के अनुसार “सात्वस्मिन् प्रेमस्वरूपा” अर्थात् परमेश्वर में अतिशय प्रेमस्वरूपा भावना ही भक्ति है। भक्ति तो भक्ति ही है चाहे वह सगुण की हो या निर्गुण की । भक्तिमार्ग ज्ञान एवं योगमार्ग की अपेक्षा अत्यन्त सरल, सरस एवं हितकारक है । इस मार्ग में इन्द्रियों के दमन तथा मन के शमन करने की आवश्यकता नही, अपितु मात्र मन की सकल प्रवृत्तियों को अपने आराध्य में केन्द्रित कर देना है। यह मार्ग सर्वसाधारण के लिए भी सुग्राह्य है । सन्तों ने भक्ति की श्रेष्ठता अनेक प्रकार से प्रतिपादित की है। सन्त दादूदयाल भक्ति के बिना जीवन को निरर्थक मानते हुए कहते है कि
"दादू हरि की भगति बिना धिग जीवन कलि माहि" सन्त पलटूदास भगवान के दरबार में एक मात्र भक्ति को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं -
"साहिब के दरबार में, केवल भक्ति विचार"