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एक समालोचनात्मक अध्ययन
19 सहजोबाई का कथन है कि नाम जप से श्रेष्ठ साधन भवसागर संतरण के लिए अन्य कोई नहीं है -
सहजो भवसागर बहै, तिमिर बरस घनघोर ।
तामें नाम जहाज है पार उतारै तोर ॥' नाम-जप के सम्बन्ध में डॉ. राजदेवसिंह का यह कथन आत माननीय है -
“नाम जप के सम्बन्ध में वैदिक-अवैदिक, सगुण-निर्गुण, भारतीयअभारतीय सभी परम्पराओं में पर्याप्त आस्था बुद्धि मिलती है और संसार के सभी सन्तों, भक्तों और रहस्यवादियों ने इस नाम जप को निःश्रेयस प्राप्ति का अव्यर्थ साधन माना है ।
सन्तों ने जिस निर्गुण राम की उपासना और राम नाम के जप का बहुश: व्याख्यान किया है वह उनके निर्गुण-सगुण सम्बन्धी अविवेक का परिचायक न होकर उनकी नाम के प्रति एकान्त निष्ठा का परिचायक है। वस्तुत: उनका सदसद्विलक्षण, भावाभावविर्मुक्त, निर्गुण ब्रह्म ईश्वराद्वयवाद के अद्वैत ब्रह्म की तरह स्वतन्त्र है। शैव मत और सन्त मत की यह एक बड़ी विशेषता है कि वह न शुष्क ज्ञानमार्ग है और न ज्ञानहीन भक्तिमार्ग । उसमें ज्ञान और भक्ति दोनों का सामंजस्य है। इनकी भक्ति अज्ञानमूलक द्वैतभाव से उत्पन्न नहीं है । वस्तुतः वह परिस्फुट अद्वैत की अवस्था है और एक हिसाब से यह परिस्फुट द्वैत की अवस्था भी है परन्तु यह अलौकिक द्वैत है इसीलिए यहाँ एक साथ भक्ति और ज्ञान का, चित् और आनन्द का समावेश दिखाई पड़ता है।
___3. आत्मा - सन्तों ने जीव या आत्मा को ब्रह्म का अंश माना है। उसे खोजने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वह घट-घट व्यापी है। वह साधक की आत्मा में ही समाया हुआ है। वह अजर है, अमर है, अनादि अनंत है, अविनश्वर है । उससे ही यह जगत् भासता है । उसी के आलोक में ये सारी प्रक्रियाएँ होती है। उसके चले जाने पर शरीर में प्राण नहीं रहते। वही ब्रह्मस्वरूप है । उसी की खोज वांछनीय है। उसके श्रेष्ठत्व एवं अमरत्व का ज्ञान साधक को अपनी ओर आकर्षित करता है, इसीलिए साधक इसे जानने के लिए उन्मुख हो जाता है। इस सम्बन्ध में कबीर का कथन है - 1. संतबानी संग्रह, भाग 1 2. संतों की सहज साधना : डॉ. राजदेव सिंह