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एक समालोचनात्मक अध्ययन
सन्त गरीबदास कहते हैं कि बिना भक्ति के मन की वासनाएँ एवं अनेक प्रकार के सन्देह नहीं मिटते हैं -
बिना भगति क्या होत है कासी करवट लेह।
पिटे नही मन वासना, बहु विधि भरम संदेह ।। सन्तों के अनुसार परमतस्न को खोजने के लिए बाहर के किसी आडम्बर पूजा-पाठ, मन्दिर मूर्ति आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। अन्तरतम के चंचल तत्त्वों को स्थिर करने से मोक्ष जैसे सर्वश्रेष्ठ सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है । सन्तों का भक्ति योग इसी पृष्ठभूमि में आया है। अपने पूर्ववर्ती साधकों की तरह सन्तों ने भी बाह्याडम्बर का तिरस्कार किया और अन्तरतम में उस परमतत्त्व को खेजने का प्रयास किया। जहाँ पूर्ववर्ती साधकों ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रेमतत्व की उपेक्षा की, वहाँ कबीर, रैदास, नानक, दादू आदि सन्तों ने इस प्रेम तत्व पर सबसे अधिक बल दिया।
प्रेम बराबर जोग ना। प्रेम बराबर ज्ञान ।
प्रेम भक्ति बिन साधिवो। सब ही थोथा ज्ञान ॥ सन्तों द्वारा इस प्रेम तत्त्व को शुद्ध आचार एवं निर्विषय चित्त की स्वस्थ भूमिका देकर पूर्ववर्ती साधकों द्वारा आदृत सिद्धियों की उपेक्षा करते हुए अन्तरतम में स्थित परम प्रेममय भगवान के प्रति एकनिष्ठ प्रीति को महत्वपूर्ण माना गया । साथ ही इसके लिए सदाचार, ब्रह्मचर्य, विनीतभाव, समर्पण बुद्धि आदि को अनिवार्य बतलाया गया है।
सन्तों की दृष्टि में भक्ति ही सहज है और भक्ति की साधना ही एक मात्र सहज साधना है। भक्ति के सामने आठ सिद्धियाँ और नौ निधियाँ तो तुच्छ हैं ही, साथ ही मुक्ति भी हीन है -
चारि पदारथ मुक्ति बापुरी, अठसिधि नौ चेरी।
माया दासी ताके आगे, अहं भक्ति निरजन तेरी ॥' भक्ति शास्त्रीय ग्रन्थों में भक्ति के सम्बन्ध में अनेक बातें कही गई है। भागवत के मत से धर्म, योग और ज्ञान के साधक जो कुछ कर्म, तप ज्ञान, वैराग्य योग, दान, धर्म या अन्य श्रेय के साधनों द्वारा प्राप्त करते हैं , उसे भगवद्-भक्ति
1. दादूदयाल की बानी पृष्ठ 337 : 98