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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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सन्त परम्परा :
हिन्दी सन्त के अर्थ या लक्षण के समान हिन्दी सन्त परम्परा की दृष्टि से कबीर आदि सन्तों की परम्परों में महाकवि भूधरदास नहीं आते हैं। कबीर को केन्द्र मानकर पूर्ववर्ती सन परम्परः, कार को समकालीन परम्परा एवं उत्तरकालीन सन्त परम्परा - इसप्रकार हिन्दी सन्त परम्परा को तीन भागों में बाँटा है, जिसका विवेचन यथास्थान किया गया है। जबकि भूधरदास जिस परम्परा में आते हैं, वह करोडों वर्ष पहले हए जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) से चली आई हुई श्रमण परम्परा है। वे श्रमण परम्परा के प्रवर्तक न होकर अनुयायी सद्गृहस्थ श्रावक ही हैं। जहाँ जैन तीर्थंकर श्रमण परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं, वहाँ साधु एवं गृहस्थ उसी परम्परा के अनुसरणकर्ता कहे जाते हैं।
इसप्रकार भूधरदास कबीर आदि निर्गुण सन्तों की परम्परा में न आकर जैन तीर्थंकरों एवं जैनाचार्यों द्वारा प्रवर्तित जैन श्रमण परम्परा के समर्थक जैन विद्वानों की परम्परा में आते हैं। 16 वीं शताब्दी तक अनेक जैन विद्वान कवि, साहित्यकार, लेखक, वक्ता आदि हुए हैं, जिन्होंने जिनवाणी की महती सेवा करते हुए जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में पर्याप्त योगदान दिया है। भूधरदास उसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में प्रतिष्ठित हैं अर्थात् मूधरदास जैन तीर्थकरों, जैनाचार्यों के अनुयायी जैन विद्वानों की परम्परा में समाहित हैं। सन्त मत पर अन्य प्रभाव या सन्त मत के आधार :
सन्त मत पर उपनिषद्, वेदान्त, सिद्धसम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय, इस्लाम धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सूफी मत आदि का सभी का प्रभाव माना गया है।' जबकि भूधरदास के साहित्य पर उपनिषद, वेदान्त, सिद्धों, नाथों, मुसलमानों, बौद्धों, सूफियों आदि का प्रभाव न होकर जैन तीर्थंकरों, जैनाचार्यों एवं पूर्ववर्ती जैन विद्वानों का प्रभाव परिलक्षित होता है । भूधरदास द्वारा प्रतिपादित विषय-वस्तु जो कि पूर्णतया जैन धर्म सम्मत है, जैन श्रमण परम्परा के अनुरूप है । प्रस्तुतीकरण में नवीनता या मौलिकता होने पर भी सैद्धान्तिक विवेचन पूर्णत: आगम सम्मत एवं पूर्व परम्परा पोषित ही है। अत: हिन्दी सन्त कवियों के समान भूधरदास 1. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध,प्रथम अध्याय : सन्त परम्परा 2. जेन साहित्य का इतिहास भाग 4 डॉ. नेमिचन्द जेन 3, प्रस्तुत शोध प्रबन्ध, पंचम अध्याय • पदसंग्रह का भावपक्षीय अनुशीलन