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महाकवि भूधरदास :
भूधरदास जैन सद्गृहस्थ होने से कबीर आदि सन्तों से भिन्न ही हैं; परन्तु उनमें कबीर आदि हिन्दी सन्तों के अनेक लक्षण मिल जाते हैं। अत: हम उन्हें हिन्दी सन्त कवियों के निकटवर्ती मानते हैं।
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने अपने ग्रन्थ “राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व" में संवत् 1450 से 1750 के राजस्थान के जैन सो ६० प्रकाश डाला है। इस सन्दर्भ में उनका कथन है - “इन 300 वर्षों में भट्टारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु के रूप में जनता द्वारा पूजित थे।..ये भट्टारक अपना आचरण श्रमण परम्परा के पूर्णत: अनुकूल रखते थे। ये अपने संघ के प्रमुख होते थे... संघ में मुनि, ब्रह्मचारी, आर्यिकाएं भी रहा करती थीं।..इन 300 वर्षों में इन भट्टारकों के अतिरिक्त अन्य किसी भी साधु का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा. इसलिए ये भट्टारक और उनके शिष्य ब्रह्मचारी पद वाले सभी सन्त थे।
उपर्युक्त कथन से भट्टारक एवं उनके शिष्य ब्रह्मचारी आदि भी सन्त की कोटि में आते हैं। परन्तु भूधरदास इन भट्टारकीय सन्तों की परम्परा में नहीं आते हैं। ___इसप्रकार न तो दिगम्बर जैन साधु परम्परा के सन्त थे, न भट्टारकीय जैन साधु या ब्रह्मचारी थे और न कबीर आदि निर्गुण ज्ञानमार्गी सन्त थे । वस्तुत: वे एक ऐसे जैन सद्गृहस्थ थे, जो आध्यात्मिक रुचि और जैन साधना में संलग्न थे। वे जगत में रहकर भी उससे निर्लिप्त थे। वे परोपकारी, दयालु एवं परहितचिन्तक महापुरुष होने से सन्त की कोटि में आते हैं।
निष्कर्षत: भूधरदास हिन्दी सन्त परम्परा से पृथक् होकर भी उसके निकट है; क्योंकि उनमें कबीर आदि सन्तों के अनेक गुण दृष्टिगत होते हैं । इसप्रकार सन्त शब्द निर्गुण सन्तों और सगुण भक्तों के साथ-साथ उन सभी आध्यात्मिक रुचि एवं प्रवृत्ति वाले साधनाशील गृहस्थ व्यक्तियों का बोध कराता है, जिनकी एक कड़ी भूधरदास भी हैं। 1. राजस्थान के बैन सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व - डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल
प्रस्तावना पृष्ठ 6