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महाकवि पूपरदास : उपर्युक्त सभी मतों से प्रभावित नहीं हैं, इसलिए भूधरदास के साहित्य को हिन्दी सन्तों के उस साहित्य के अन्तर्गत समाहित नहीं किया जा सकता, जो अनेक प्रभावों को अपने में आत्मसात् करके उदित हुआ है। वास्तव में भूधरसाहित्य सम्पूर्ण जैन साहित्य का एक अंश है । जैन साहित्य और जैनधर्म ने हिन्दी संत साहित्य को काफी हद तक प्रभावित किया है । सन्त मत स्वयं जैनदर्शन एवं जैनधर्म से प्रेरित व प्रभावित है; जिसका सप्रमाण विवेचन पूर्व में किया जा चुका
साहित्य-असाहित्य का निर्णय :__ सन्त काव्य के साहित्य या असाहित्य होने के सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों के मतों को उद्धृत करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जिसप्रकार सन्त साहित्य अनुभूतिप्रधान, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं उपदेशप्रधान है। उसी प्रकार भूधरसाहित्य भी अनुभूति प्रधान, धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक एवं उपदेशप्रधान है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे लब्धप्रतिष्ठ मनीषी नैतिक धार्मिक एवं आध्यात्मिक साहित्य को साहित्य की सीमा से बाहर नहीं रखना चाहते हैं। इस सम्बन्ध में वे कहते हैं -"केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रंथों को साहित्य की सीमा के बाहर निकालने लगेंगे तो हमें तुलसी की रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और. जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा। ...धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए। अत: जिसप्रकार सन्त काव्य को साहित्य की सीमा के बाहर नहीं रखा जा सकता है; उसीप्रकार भूधरदास के साहित्य को साहित्य की सीमा से बाहर नहीं माना जा सकता है। काव्यादर्श :
सन्तों ने अपने काव्यादर्शों के बारे में अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। जिसप्रकार सन्तों का काव्यादर्श ब्रह्मविचार, ब्रह्म का यशोमान 1. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध, प्रथम अध्याय - सन्त मत पर अन्य प्रभाव 2. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध,प्रथम अध्याय - सन्त काव्य : साहित्य-असाहित्य का निर्णय 3. हिन्दी का आदिकाल - डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 11 4. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध,प्रथम अध्याय - सन्त साहित्य का काव्यादर्श