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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 397 इसी सन्दर्भ में भूधरदास ने परस्त्री का त्याग करने वालों की प्रशंसा तथा परस्त्री को देखकर हँसने, प्रसन्न होने वालों की निन्दा भी की है। परस्त्री को देखकर अपनी नजर धरती की ओर नीची करने वालों को वे बारम्बार धन्य मानते हैं - दिवि दीपक-लोय बनी वनिता, जड़ जीव पतंग जहाँ परते। दुख पावत प्रान गवाँवत है बरडै न रहै हठ सौं जस्ते ॥ इहि भाँति विचच्छन अच्छन के वश, होय अनीति नहीं करते। परतिय लखि जे धरती निरखै, धनि हैं, धनि हैं धनि हैं नर ते॥' पुन: कहते हैं कि - दिढ शील शिरोमनि कारज मैं, जग मैं जस आरज तेइ लहैं। तिनके जुग लोचन वारिज है इहि भांति अचारज आप कहैं ।। परकामिनी को मुखचन्द चित, मुंद जाहि सदा यह टेव गहें। धनि जीवन है तिन जीवन को, थनि माय उनै उरमायं बहे ।। परस्त्री को देखकर निर्लज्जतापूर्वक हँसने और प्रसन्न होने वालों के प्रति वे कहते हैं जे परनारि निहारि निलज्ज, हँसै विगसैं बुधिहीन बडेरे । ठन की जिमि पातर पेखि, खुशी उर कूकर होत घनेरे॥ है जिनकी यह टेव वहै, तिनकों इस भौ अपकीरति है रे। दै परलोक विषै दृढ़ दण्ड करै शतखण्ड सुखाचल केरे॥' पार्श्वपुराण में प्रसंगानुसार कामी पुरुष के स्वभाव के बारे में भूधरदास का कथन हैं - पाप कर्म को डर नहीं, नहीं लोक की लाज । कामी जन की रीति यह धिक तिस जन्म अकाज ।। 1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 58 2. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 59 3. जेनशतक, भूधरदास, छन्द 60
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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