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महाकवि भूधरदास : चोरी निषेध :
चोर कभी और कहीं भी निश्चित नहीं होता, हमेशा और हर जगह चौकन्ना रहता है। देख लेने पर स्वामी (चोरी की गई वस्तु का मालिक) उसकी पिटाई करता है। अन्य अनेक निर्दयी व्यक्ति भी उसे मिल कर मारते हैं। राजा भी क्रोध करके उसे तोप के सामने खड़ा करके उड़ा देता है । चोर बहुत दुःख भोगकर मरता है और परभव में भी उसे अधोगति प्राप्त होती है । चोरी नामक व्यसन अनेक विपत्तियों की जड़ है। चोरी में प्रत्यक्ष ही बहुत दुःख दिखाई देते हैं। समझदार व्यक्ति तो दूसरे के अदत्त (बिना दिये हुये) धन को अंगारे के समान समझकर कभी अपने हाथ से छूते भी नहीं हैं।'
इसी बात को भूधरदास ने इस प्रकार भी कहा है :प्रगट जगत में देखिये, (ज्ञानी) प्राननतें धन प्यारो रे।
जे पापी परधन हरें, (ज्ञानी) तिनसम कौन हत्यारो रे।' परस्त्री सेवन निषेध :
परनारी का सेवन खोटी गति में ले जाने के लिए वाहन है, गुणसमूह को जलाने के लिए भयानक आग है, उज्ज्वल यशरूपी चन्द्रमा को ढंकने के लिये बादलों की घटा है, शरीर को कमजोर करने के लिए क्षय रोग है, धनरूपी सरोवर को सुखाने के लिये धूप है, धर्मरूपी दिन को अस्त करने के लिए संध्या है,
और विपत्तिरूपी सर्यों के निवास के लिए बाँबी है । शास्त्रों में परनारी सेवन को इसी प्रकार के अन्य भी अनेक दुर्गुणों से भरा हुआ कहा गया है। वह प्राणों को हरण करने के लिए प्रबल फाँसी है। ऐसा हृदय में जानकर हे मित्र ! तुम कभी पलभर भी परस्त्री से प्रेम मत करो।'
इसी बात को दूसरों शब्दों में कहा गया है - परतिय व्यसन महा बुरो, (ज्ञानी) यामें दोष बड़ोरो रे। इहि भव तन धन यश हरे, (ज्ञानी) यामैं परभव नरक बसेरो रे ।।"
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1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 56 2. पाईपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 86 3, जैनशतक, पूघरदास, छन्द 50 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूघरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 8