SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 387 व्युत्सर्ग - अपने शरीर की ममता को दूर कर कार्योंत्सर्ग मुद्रा धारण करना तथा अंतरंग बहिरंग परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग नाम का तप है।' ध्यान - सभी चिन्ताओं का निरोध करके एक वस्तु में चित्त का स्थिर हो जाना, जिनागम में ध्यान कहा गया है। आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याना चाहिए। इसप्रकार धीस्वीर महामुनि इन बारह प्रकार के कठोर तपों का आचरण करते हैं। सोलहकारण भावनायें :दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अतीचार न लगाना, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्ति-त्याग, यथाशक्ति-तप, साधु-समाधि, वैयावृत्ति, अर्हत्-भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गभावना और प्रवचन-वात्सल्य - इन सोलह भावनाओं से "तीर्थकर" नाम कर्म की प्रकृति का आस्त्रक्बंध होता है।' इनका विवेचन निम्नांकित है दर्शनविशुद्धि - आठ शंकादि दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता - इन पच्चीस मलरहित सम्यक्त्व का होना दर्शनविशुद्धि कहलाती है। विनय सम्पन्नता - दर्शन, ज्ञान चारित्र के समुदायरूप रत्नत्रय के धारी मुनिराज के प्रति विनय करना, दूसरी पिवत्र विनय सम्पन्नता भावना है।' शील-व्रतों में अनतिचार - अठारह हजार अंग सहित शील का एवं व्रतों का पालन करना तथा उनके पालन में अतीचार न लगाना, तीसरी शीलव्रतों में अनतिचार भावना है। 1. से 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 3. तत्वार्थसूत्र, उमास्वामी, अध्याय 6 सूत्र 24 4. पार्श्वपुराण, कलकचा, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 5. पार्षपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35 6. पावपुराण, कलकसा, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy