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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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व्युत्सर्ग - अपने शरीर की ममता को दूर कर कार्योंत्सर्ग मुद्रा धारण करना तथा अंतरंग बहिरंग परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग नाम का तप है।'
ध्यान - सभी चिन्ताओं का निरोध करके एक वस्तु में चित्त का स्थिर हो जाना, जिनागम में ध्यान कहा गया है। आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याना चाहिए।
इसप्रकार धीस्वीर महामुनि इन बारह प्रकार के कठोर तपों का आचरण करते हैं।
सोलहकारण भावनायें :दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अतीचार न लगाना, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्ति-त्याग, यथाशक्ति-तप, साधु-समाधि, वैयावृत्ति, अर्हत्-भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गभावना और प्रवचन-वात्सल्य - इन सोलह भावनाओं से "तीर्थकर" नाम कर्म की प्रकृति का आस्त्रक्बंध होता है।'
इनका विवेचन निम्नांकित है
दर्शनविशुद्धि - आठ शंकादि दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता - इन पच्चीस मलरहित सम्यक्त्व का होना दर्शनविशुद्धि कहलाती है।
विनय सम्पन्नता - दर्शन, ज्ञान चारित्र के समुदायरूप रत्नत्रय के धारी मुनिराज के प्रति विनय करना, दूसरी पिवत्र विनय सम्पन्नता भावना है।'
शील-व्रतों में अनतिचार - अठारह हजार अंग सहित शील का एवं व्रतों का पालन करना तथा उनके पालन में अतीचार न लगाना, तीसरी शीलव्रतों में अनतिचार भावना है।
1. से 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 3. तत्वार्थसूत्र, उमास्वामी, अध्याय 6 सूत्र 24 4. पार्श्वपुराण, कलकचा, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 5. पार्षपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35 6. पावपुराण, कलकसा, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35