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एक समालोचनात्मक अध्ययन
अदर्शन परीषह - ( ऋद्धि आदि पाने की इच्छा न करना ) - "मैं बहुत समय से घोर तप कर रहा हूँ, परन्तु अभी तक मुझे डि. अतिशय
आदि उत्पन्न नहीं हुआ है । तप का बल, ऋद्धि आदि सिद्ध होने पर सब सुनते हैं, महत्व देते हैं, परन्तु मेरे पास वह झूठा-सा लग रहा है अर्थात् मेरे पास वह तप का बल, ऋद्धि आदि नहीं है ।" इसप्रकार मुनिराज कभी नहीं सोचते हैं तथा शुद्ध सम्यक्त्व व शान्तरस में लीन रहते हैं - ऐसे साधु अदर्शन परीषह को जीतने वाले हैं । उनके दर्शन करने से पास जागा है।
ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं । महामोह अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से अदर्शन परीषह तथा अन्तराय कर्म के उदय से अलाभ परीषह होते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से नग्न, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश याचना.और सत्कार-पुरस्कार- ये सात परीषह होते हैं। वेदनीय कर्म के उदय से शेष ग्यारह क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शैय्या, वध, रोग, तृण, स्पर्श और मल परीषह होते हैं ।
एक मुनिराज के साथ अधिक से अधिक उन्नीस परीषहों का उदय हो सकता है। आसन (निषद्या), शयन (शय्या) विहार (चर्या )- इन तीनों में से एक समय में एक ही हो सकता है। शीत और उष्ण में भी एक समय में एक ही हो सकता है । इसप्रकार ये तीन परीषह एक साथ नहीं होती हैं।'
बारह तप - अनशन, अवमोदर्य ( ऊनोदर) - व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश-ये छह बाह्यतप हैं । प्रायश्चित, विनय वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - ये छह अंतरंग तप हैं। मुनिराज इन बारह तपों को तपते हैं। तप करने से शुभध्यान होता है तथा इनके सेवन करने से निर्वाणपद प्राप्त होता है। तीन लोक और तीन काल में तप के बिना कर्मों का नाश कभी नहीं होता है।
अनशन - एक दिन से लेकर वर्षों तक जिससे जितना त्याग हो सके, चार प्रकार के { खाद्य, स्वाध लेह, पेय ) भोजन का त्याग करना अनशन है। यह रागरूपी रोग को दूर करने का उपाय जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
1 से 3 पार्श्व पुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4 पृष्ठ 34 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 30 5. से 7. पाचपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4 पृष्ठ 31