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एक समालोचनात्मक अध्ययन
बध परीषह ( अज्ञानियों द्वारा किये गये बध आदि के दुखों को सहना) - महा मुनिराज वैररहित और अपराधरहित होते हैं। उनको दुष्ट लोग मिलकर मारें, कोई खींचकर खम्भे से बाँध दें, कोई अग्नि में जला दे, फिर वे कभी क्रोध नहीं करते हैं और पूर्व कर्म के फल का विचार करते हैं। समर्थ होकर भी बध-बंधन सहन करते हैं। ऐसे गुरु हमेशा हमारी सहायता करें।
याचना परीषह आहारादि की याचना न करना ) - तपस्वी वीर मुनिराज घोर तप करते हैं। तप करते हए उनका शरीर सख जाता है, क्षीण हो जाता है, हड्डियाँ तथा चर्म ही शरीर में शेष रहते हैं, नसाजाल दिखाई देने लगता है। वे औषधि भोजन, पान आदि प्राण जाने पर भी माँगते नहीं हैं। कठोर अयाचीक व्रत करते हैं और पश्चाताप कर धर्म को मालिन नहीं करते
अलाभ परीषह ( विधि के अनुसार भोजन न मिलने पर दुःख न मानना) - मुनिराज एक बार भोजन के समय मौन लेकर बस्ती में भोजन के निमित्त आते हैं। यदि योग्य भिक्षा की विधि (आहार की विधि) नहीं मिल पाती है तो वे महापुरुष मन में खेद नहीं करते हैं। भोजन के बिना भ्रमण करते हुए बहुत दिन बीत जाते हैं। फिर भी वे कठोर तप करते हुए विशद बारह भावनाएँ भाते हुए कठिन अलाभ के परीषह को सहन करते हैं तथा मोक्ष प्राप्त करते हैं।'
रोग परीषह ( शरीर में रोम आदि होने पर उपचार न कराना) - जब शरीर में वात, पित्त, कफ शोणित के घटने- बढ़ने से रोग, संजोग आदि उत्पन्न हो जाते हैं, तब जगत के जीव कायर हो जाते हैं; परन्तु शूरवीर मुनिराज दारुण व्याधि की वेदना को सहते हैं और उपचार नहीं चाहते हैं, उपचार नहीं करवाते हैं। ऐसे आत्मा के लीन रहने वाले और शरीर से विरक्त रहने वाले जैन मुनि जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये नियमों का निर्वाह करते हैं।'
तृण-स्पर्श परीषह ( तिनके, काँटे आदि चुभने पर उन्हें न हटाना) - सूखे तिनके, तीक्ष्ण काँटे और कठोर पत्थर पैर विदारण कर देते हैं, धूल उड़कर आँखों में आ जाती है, तीर या फाँस शरीर में पीड़ा उत्पन्न करती 1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 2 4 3 पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33-34