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महाकवि भूधरदास :
जरा सी भौंह टेढ़ी होने पर करोड़ों शूरवीर दीनता दिखाने लगते हैं, ऐसे पहाड़ उड़ाने वाले पुरुष, स्त्री-वेदरूपी हवा से स्वयं उड़ जाते हैं अर्थात् स्त्री के सामने दीनता दिखाने लगते हैं, स्त्री के प्रति मोहित हो जाते हैं । वे साहसी साधु धन्य हैं ! धन्य है ! जिनका मनरूपी सुमेरू स्त्री को देखकर डिगता नहीं है।'
चर्या परीषह ( गमन करने में थकावट की तरफ ध्यान न देना) - कोमल पैर कठोर पृथ्वी पर रखते हुए वे धीर मुनिराज कष्ट नहीं मानते हैं। हाथी, घोड़ा पालकी पर चढ़े हुए लोगों द्वारा अपशब्द कहे जाने पर अपमानित होने पर हृदय में दु:ख नहीं मानते हैं । इसप्रकार मुनिराज चर्या के दुख सहन करते हैं और दृढ़ कर्मरूपी पर्वतों को भेदते हैं।
निषद्या परीषह ( जिस आसन से बैठना उससे चलायमान नहीं होना ). • मुनिराज गुफा, श्मशान, पर्वत, वृक्ष की कोटर आदि जहाँ बैठते हैं वहाँ भूमि को शुद्ध करके बठते हैं। परिमित समय निश्चल शरीर रखते हैं, बार-बार आसन नहीं बदलते हैं। मनुष्य, देव, पशु और अन्य अचेतन द्रव्यों द्वारा उपसर्ग किये जाने पर स्थान नहीं छोड़ते हैं और स्थिरता धारण करते हैं। ऐसे गुरु सदैव मेरे हृदय में विराजमान होवें।'
शय्या ( शयन) परीषह ( भूमि पर सोने से कंकड़ आदि चुभने का दुःख सहना) - जो महान पुरुष स्वर्ग के महलों में सुन्दर सेज पर सोकर सुख पाते थे, वे ही कोमल अंगों वाले अब अचल होकर एक आसन से कठोर मूमि पर शयन करते हैं। पत्थर के टुकड़े, कठोर कंकड़ आदि चुभने पर कायर नहीं होते हैं। ऐसे शय्या या शयन परीषह जीतने वाले मुनिराज कर्मरूपी कालिमा को धोते हैं।
आक्रोश परीषह या दुर्वचन परीषह - ( अज्ञानियों के द्वारा कहे गये कठोर वचनों का सहना) - जितने जगत में चराचर जीव हैं, मुनिराज उन सबको सुख देने वाले तथा सबका हित चाहने वाले हैं । मुनिराज को देखकर दुष्ट लोग - "पाखण्डी" "ठग" "अभिमानी” “भेष तपस्वी का है परन्तु वास्तव में चोर है" "इस पापी को पकड़कर मारो" - इत्यादि दुर्वचन कहते हैं। वे ज्ञानी मुनिराज ऐसे वचनरूपी बाणों की वर्षा को क्षमारूपी दाल ओढ़कर सहन करते
1. से 5. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 33