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________________ 368 महाकवि भूधरदास : उद्धृत करते हैं।' आत्मानुभव की महिमा बतलाते हुए भूधरदास की प्रेरणा है - " है भाई यह मनुष्य जीवन वैसे ही बहुत थोड़ी बुद्धिवाला है, ऊपर से उसमें बुद्धि और बल भी बहुत कम है, जब कि आगम तो अगाध सागर के समान है; अत: इस जीवन में उसका पार कैसे पाया जा सकता है ? इसलिए ऐसा करो कि सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी का मूल जो आत्मा का अनुभव है, तुम उसे ही प्राप्त कर लो । यह आत्मानुभव अपूर्व कला है, संसाररूपी ताप को शान्त करने के लिए चन्दन की शलाका है। अत: इस जीवन में एकमात्र आत्मानुभवरूप अपूर्वकला को ही पीड को प्रात्मानुभव का अभ्यास करो और आत्मानुभव का ही परम आनन्द प्राप्त करो, यही भगवान महावीर की वाणी है। आत्मानुभव ही सारभूत है। यही आत्मा का हित करने वाला है। यही मदार अर्थात श्रेष्ठ करने योग्य उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य है, इसके अतिरिक्त अन्य सब व्यर्थ है।' 1. जेण पिरंतर मणपरियउ विसयकसाययह जतु | मोक्खह कारण पतडउ अणणंत तणं मंतु ॥ जं सक्कर तं कीरह ज ण सक्केइ तं च सद्दहर्ण । सदहमाणा जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ।। तवयरणं वयधरणे संजमतरणं सधजीवदयाकरण । अंते समाहि मरणं चङगइदुक्खं निवारेई ॥ अंतो णत्यि सुरणं कालो थोवो वयं च दृम्मेहा । तं णवरि सिक्खियब्वं जं जरमरणक्खयं कुणई ॥ चर्चा समाधान, कलकत्ता, भूधरदास, अन्तिम प्रशस्ति पृष्ठ 122 2. जीवन अलप आयु बुद्धि बल हीन तामै, आगम अगाध सिन्धु कैसें ताहि डाक हैं द्वादशांग मूल एक अनुभै अपूर्व कला, पवदाघहारी घनसार की सलाक है || यह एक सीख लीजै याही को अभ्यास कीजे. याको रस न.पीजे ऐसो वीर जिन-वाक है। इतनों ही सार ये ही आतम को हितकार, यहीं लौ मदार और आगै ठूकढाक है ।। जैनशतक, भूधरदास, छन्द 91
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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