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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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सम्यग्ज्ञान - जीवादि तत्त्वों को नय-प्रमाण-निक्षेप आदि के द्वारा भेदाभेदरूप यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है -
नय प्रमाण निक्षेप करि, भेदाभेदविधान।
जो तत्त्वन को जाननो, सोई सम्यग्ज्ञान ॥' जैन शास्त्रों में उपलब्ध सम्यग्ज्ञान की कुछ परिभाषायें निम्नलिखित हैं
1. जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। 2
2. जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनत रहित, अधिकता-रहित, विपरीततारहित, जैसा का तैसा सन्देह-रहित जानता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।'
3. आत्मा और अनात्मा का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है ।
4 आत्मस्वरूप का जानना ही सम्यग्ज्ञान है।'
सम्यग्ज्ञान में “सम्यक्” पद सम्यग्दर्शन और मिथ्याज्ञान में "मिथ्या" पद मिथ्यादर्शन की उपस्थिति का सूचक है, इसलिए सम्यग्दृष्टि का सम्पूर्णज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान मिथ्याज्ञान है, चाहे उसकी लौकिक जानकारी सत्य ही क्यों न हो; परन्तु आत्मानुभूति के बिना उसका समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान ही कहा जायेगा। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की लौकिक जानकारी सत्य या असत्य कैसी ही क्यों न हो - आत्मानुभूति सहित होने से उसका समस्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही माना जायेगा। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान एक प्रकार से सच्चा तत्त्वज्ञान या आत्मज्ञान ही है। जीवादि पदार्थों का विशेषकर आत्मतत्त्व का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय - रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। लौकिक पदार्थों के ज्ञान से इसका कोई प्रयोजन नहीं है।
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1, पार्श्वपुराण, भूघरदास, अधिकार " पृष्ठ 85 2. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद आचार्य, अध्याय 1 सूत्र 1 की टीका 3. रत्नकरण्डश्रावकाचार,समन्तभद्राचार्य, श्लोक 42 4. द्रव्यसंग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, गाथा 42 5. आपरूप को जानपनो, सो सम्यग्ज्ञान कला है।
छहढाला,पं. दौलतराम,तीसरी ढाल, छन्द 2