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महाकवि भूधरदास : में लीन रहना ही सम्यग्चारित्र है । ' सम्यग्दर्शनादि स्वभाव पर्याय होने से धर्म कहे गये हैं । रलकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा: विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।।' धर्म के ईश्वर तीर्थकरदेव ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र को धर्म तथा इसके विपरीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र को संसार की परम्परा को बढ़ाने वाला अधर्म कहा है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को "रत्नत्रय" कहा जाता है तथा रत्नत्रय को धर्म और मोक्ष का मार्ग प्ररूपित किया जाता है। उमास्वामी तत्वार्थसूत्र, अपरनाम मोक्षशास्त्र में लिखते हैं -
“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:".
सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान और सम्यग्चारित्र - ये तीनों मिलकर एक मोक्ष का मार्ग है।
इन तीनों में भी सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल “दसणमूलो धम्मो तथा सम्याचारित्र को साक्षात् धर्म -"चारितं खल धम्मो" ' कहा गया है। साथ ही सम्यग्दर्शन की अनेक प्रकार से महिमा बतलाकर उसकी सर्वप्रथम आराधना
1. पदध्यनते भिन्न आप में रुवि सम्यक्त्व मला है।
आप रूप को जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है || आप रूप में लीन भये घिर सम्यग्चारित्र सोई। अब व्यवहार मोक्षमग सुनिये हेतु नियत को होई ।। छहढाला- पं. दौलतराम तीसरी ढाल सन्द 2 2. रत्नकरण्डश्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्राचार्य श्लोक 3 3. तत्त्वार्थसूत्र - उमास्वामी,प्रथम अध्याय सूत्र 1 4. अष्टपाहुड़ (दसण पाहुड़) कुन्दकुन्दाचार्य गाथा 2 5. प्रवचनसार कुन्दकुन्दाचार्य गाथा 7 6. दर्शनं ज्ञान चारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शने कर्णधारं तन्मोधमार्गे प्रचक्ष्यते॥ विद्यावृतस्य सम्भूतिस्थिति वृद्धि फलोदया। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव । न सम्यक्त्वसमं किंचित् चैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश मिथ्यात्वसमे नान्यत्तनुमृतम । रस्नकरण्डश्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्राचार्य श्लोक 31, 33, 34