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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 359 करने का उपदेश दिया है, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र - ये स्वभाव के अनुकूल परिणमन होने से जीव के स्वभाव हैं; अत: धर्म हैं। इसी प्रकार उत्तमक्षमादि दश धर्म तथा अहिंसा को भी स्वभावपर्याय होने से धर्म कहा गया है । इस तरह स्वभाव पर्याय को ध्यान में रखकर ही वस्तु-स्वभाव. रत्नत्रय दशधर्म एवं अहिंसा को धर्म कहते हैं। निश्चय से रागादि के अभावरूप वीतराग भाव की प्रधानता से ये चारों एक ही हैं; परन्तु व्यवहार से पृथक्-पृथक् स्वरूप की अपेक्षा से इनमें भेद भी स्वीकार किया जाता है। धर्म प्रवृत्तिपरक - धर्म प्रवृत्तिमूलक होता है। वहाँ भी निश्चय धर्म शुभाशुभरूप पर की निवृत्तिपूर्वक स्व में प्रवृत्ति है तथा व्यवहारधर्म अशुभरूप परप्रवृत्ति से हटकर शुभरूप परप्रवृत्तिवाला ही है । व्यवहार धर्म पर प्रवृत्तिमूलक होने से पराश्रय-वृत्ति को द्योतक है, जब कि निश्चय धर्म स्वप्रवृत्तिवाला होने से स्वाश्रयरूप है। धार्मिक विचारों के अन्तर्गत स्व-पर प्रवृत्तिमूलक आचरणों की चर्चा अभिप्रेत होती है। आत्मा को संसार मार्ग से हटाकर मोक्षमार्ग में लगाने के लिए स्वसन्मुख कराना या स्व में प्रवृत्तिवाला बनाना धार्मिक आचरणों का मख्य उद्देश्य है । इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए अशुभरूप परप्रवृत्ति छुड़ाकर शुभरूप पर में प्रवृत्ति भी करायी जाती है और उसे व्यवहार से धर्म भी कहा जाता है। जब कि वास्तव में धर्म तो स्व-प्रवृत्तिरूप वीतरागता का नाम है । पर में प्रवृत्ति तो आत्र-बन्ध ही है, चाहे वह शुभरूप हो या अशुभरूप । फर्क यह है कि जहाँ अशुभ में प्रवृत्ति पापास्त्रव-पापबन्ध,वहाँ शुभ में प्रवृत्ति पुण्यास्त्रव और पुण्यबन्ध का कारण है ।पापास्रक-पुण्यास्त्रव, पापबन्ध और पुण्यबन्ध आस्रव और बन्ध के भेद होकर संसार के कारण हैं इसलिए हेय हैं। एकमात्र शुभाशुभ रूप पर-प्रवृत्ति से निवृत्ति द्वारा वीतरागभाव रूप स्व (निज शुद्धात्मा) में प्रवृत्ति ही परम धर्म है और वही परम उपादेय है। स्वप्रवृत्तिपरक धर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र की पूर्णता मोक्ष या परमात्मदशा है, जो कि साध्यरूप है तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र का आंशिक परिणमन मोक्षमार्ग होने से साधनरूप है। - -- 1. तशादो सम्यक्त्वं समुपाश्रणीयमखिलयलेन | तस्मिन् सत्येव भवति ज्ञानं चारित्रं च ! पुरुषार्थसिद्धयुपाय-अमृतचन्द्राचार्य श्लोक 30 - - ---
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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