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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन 357 चार द्रव्य मात्र स्वभावरूप ही परिणमन करते हैं, विभावरूप नहीं। जीव चेतन है, इसलिए उसमें ज्ञान है तथा दुःख दूर करने और सुख प्राप्त करने की इच्छा है तथा शेष पाँच अजीव हैं, इसलिए न तो उनमें ज्ञान है और न सुख प्राप्ति व दुःख निवारण की कोई इच्छा । अतः जीव के सुखी होने के लिए उसके सुख के कारणभूत स्वभाव तथा स्वभाव के अनुकूल परिणमन को वस्तु को स्वभाव होने से धर्म कहते हैं । आत्मा का त्रैकालिक स्वभाव ज्ञानानन्द है । उस ज्ञानानन्द स्वभाव को जानने, मानने और अनुभवने का नाम ही धर्म है। इससे ही सच्चा सुख या निराकुलता रूप सुख प्राप्त होता है, संसार के दुःखों एवं कर्मों से छुटकारा मिलता हैं। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है — देशयमि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ 1 मैं कर्मों का नाश करने वाले उस समीचीन धर्म को कहँगा जो प्राणियों को संसार दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में धरता हैं अर्थात् स्थापित करता है । धर्म का आचरण करने की प्रेरणा देते हुए तथा उपादेयता बतलाते हुए आचार्य गुणभद्र का कथन है पापात् दुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धम् । तस्मात् विहाय पापं सुखार्थी धर्मं सदा आचरतु ॥ ܐ पाप से दुःख होता है, धर्म से सुख होता है - यह सर्वजनों में भले प्रकार प्रसिद्ध है; इसलिए सुख प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को पाप छोड़कर धर्म का आचरण करना चाहिए । धर्म-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र - आत्मा का स्वभाव शुद्ध, आनन्द और वीतरागरूप है। उसकी सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, उसका यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान, और त्रिकाली शुद्ध स्वभाव 1. रत्नकरण्ड श्रावकाचार समन्तभद्राचार्य श्लोक 2 2. आत्मानुशासन गुणभद्राचार्य श्लोक
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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