________________
356
महाकवि भूधरदास :
प्राणियों के हित की बात करते हैं। जाम मूल है, . . हिस्या सर्वभूतानि" अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। वे न पशुओं तथा छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को बध्य मानते हैं और न मनुष्यों तथा बड़े-बड़े प्राणियों को अबध्य प्ररूपित करते हैं। वे न ब्राह्मण की पूजा करने का उपदेश देते हैं
और न चाण्डाल से घृणा करने की बात करते हैं। उनकी वीतरागदृष्टि में सब बराबर हैं।
जैनधर्म किसी स्वयंसिद्ध, अवतार तथा पुस्तक को न मानकर अपने पुरुषार्थ से राग-द्वेष तथा अल्पज्ञता से छुटकारा पाने वाले वीतरागी सर्वज्ञ पुरुष को प्रमाण मानता है तथा उसी वीतरागी और सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा कहे गये वचनों को या उनके कथनानुसार लिखे गये शास्त्रों को प्रमाण मानता है।
धर्म क्या है ? वस्तु का स्वभाव एवं स्वाभाविक परिणमन धर्म है।
शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार जो धारण करता है अथवा जिसके द्वारा धारण किया जाता है, वह धर्म है। इस दृष्टि से प्रत्येक वस्तु को उसका स्वभाव ही धारण करता है अथवा प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव को ही धारण करती है । अत: वह स्वभाव ही उस वस्तु का धर्म है। जिस प्रकार अग्नि का उष्णता, पानी का शीतलता, नीबू का खटास, चीनी का मिठास स्वभाव है; उसी प्रकार जीव का जानना - देखना तथा पुद्गल का स्पर्श, रस गन्ध, वर्ण आदि स्वभाव हैं। ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त-गुणों का पिण्ड ही आत्मा है। वे गुण ही आत्मा को धारण करते हैं अथवा आत्मा उन गुणों को धारण करता है, अत: वे आत्मा के स्वभाव हैं, धर्म हैं। इसी प्रकार स्पर्श, रस आदि पुद्गल के गुण हैं, वे ही उसे धारण करते हैं अथवा पुद्गल ही उन्हें धारण करता है; अत: वे ही पुद्गल के स्वभाव या धर्म है।
जिस प्रकार गुण वस्तु का स्वभाव है, उसी प्रकार गुणों का परिणमन भी वस्तु का स्वभाव है । गुणों का परिणमन दो प्रकार का होता है- स्वभाव के अनुकूल परिणमन तथा स्वभाव के प्रतिकूल परिणमन । अनुकूल परिणमन को स्वभाव पर्याय होने से धर्म तथा प्रतिकूल परिणमन को विभाव पर्याय होने से अधर्म कहते हैं।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- इन छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल स्वभाव और विभाव दोनों रूप से परिणमन करते हैं तथा शेष