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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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स्वभाव या गुण-धर्म से अनभिज्ञ व्यक्ति स्वर्ण-शोधन के प्रयत्न में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । जिस प्रकार सोने की पूर्ण शुद्धता दृष्टि में रखे बिना सोना शुद्ध नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार शुद्धता दृष्टि में होने पर भी शुद्ध करने की विधि ज्ञात न होने से भी शुद्धता प्राप्त नहीं की जा सकती ।
मनुष्य के आचरण का मूल या आधार-शिला विचार ही हैं। विचार के अनुसार ही व्यक्ति का आचार होता है । उदाहरणार्थ - जो आत्मा, परलोक ईश्वर, कर्म-फल आदि को नहीं मानता है, उसका आचार “खाओ, पीओ और मोज करो" अर्थात् भोगप्रधान ही होगा तथा जो मानता है कि आत्मा है, परलोक है, जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार फल भोगता है, इन कर्मों से
या मोक्ष भी मात किया जा समास है, इसका आचार भोगप्रधान न होकर धर्मप्रधान ही होगा । अत: विचारों का मनुष्य के आचार (चारित्र) पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है । दर्शन विचारमूलक होता है अत: हेतुपूर्वक वस्तुस्वरूप की सिद्धि करते हुए सत्य का दिग्दर्शन कराना दर्शन का काम है । धर्म आचार-मूलक होता है अत:हदय की पवित्रतापूर्वक आचरण या व्यवहार में शुद्धता लाना धर्म का काम है । धर्म और दर्शन का बड़ा गहरा सम्बन्ध है और एक के बिना दूसरे को नहीं समझा जा सकता है। "जैनधर्म" कहने से “जिन" देव के द्वारा कहे गये विचार और आचार-दोनों ग्रहण करना चाहिए।
जैनधर्म के विचार और आचार किसी व्यक्ति विशेष, जातिविशेष, वर्ग या सम्प्रदाय विशेष के लोगों के लिए नहीं है। वे सबके लिए अर्थात् सार्वजनिक हैं । इसी प्रकार वे किसी काल-विशेष या स्थान- विशेष के लिए नहीं हैं; अत: सार्वकालिक और सार्वदेशिक या सार्वभौमिक है। दूसरे शब्दों में जैनधर्म एक सार्वजनिक, सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक धर्म है।
जैनधर्म के विचारों का मूल है स्याद्वाद और आचार का मूल है अहिंसा । न किसी के विचारों के साथ अन्याय हो और न किसी प्राणी के जीवन के साथ खिलवाड़ हो। सब सबके विचारों को समझें और सब सबके जीवनों की रक्षा करें । इस प्रकार व्यक्ति स्वातन्त्र्य तथा विचारस्वातन्त्रय जैनधर्म के मूलतत्त्व
___ जिन जो उपदेश देते हैं वह प्राणिमात्र के हित के लिए होता है । वे न केवल मनुष्यों के हित की बात करते हैं ; अपितु जंगम और स्थावर- सभी