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महाकवि भूधरदास: प्रकार “जिन" वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है, इसे ही "सच्चा देव" कहते हैं तथा इसके द्वारा जो उपदेश दिया जाता है या जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं, वहीं “जैनधर्म" कहलाता है। जैनधर्म की अन्य धर्मों से तुलना करते हुए भूधरदास ने जैनधर्म की अनेक विशेषताएँ बतलायी हैं, जो मूलतः द्रष्टव्य हैं।
धर्म के अंग विचार और आचार
प्रत्येक धर्म के दो अंग होते हैं - विचार और आचार । विचारों के अन्तर्गत उस धर्म के वे सभी सिद्धान्त आ जाते हैं ; जिन पर वह आधृत होता है। आचार के अन्तर्गत उस धर्म की पूजा, उपासना या आराधना की अनेक पद्धतियाँ, जप, तप तीर्थ, व्रत, तिथि, त्यौहार, रीति-रिवाज, खान-पान आदि के तौर-तरीके' निधि विधान शामिल होते हैं : आगार मारती होता है, विचार भीतरी । इसी तरह आचार स्थूल होता है, विचार सूक्ष्म । विचार में चिन्तन और आचार में चारित्र (आचरण) आता है। विचार का सम्बन्ध दर्शन से और आचार का सम्बन्ध धर्म से होता है अथवा दर्शन विचार से तथा धर्म आचार से सम्बन्धित होता है । अत. दर्शन और धर्म अथवा विचार और आचार - दोनों में परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है।
प्रायः प्रत्येक धर्म के धर्मप्रवर्तक ने न केवल आचार-रूप धर्म का उपदेश दिया; अपितु अपनी दृष्टि से वस्तु के स्वभावरूप धर्म का उपदेश भी दिया। इसलिए जिस प्रकार प्रत्येक धर्म की अपनी एक आचार संहिता है; उसी प्रकार उसका अपना एक दर्शन भी है। सामान्यत: दर्शन में आत्मा क्या है ? परमात्मा (ईश्वर) क्या है? विश्व क्या है? परलोक क्या है? आदि प्रश्नों के उत्तर दिये रहते हैं । अर्थात् जहाँ दर्शन आत्मा, ईश्वर, जगत, कर्म, पुर्नजन्म, मोक्ष आदि के स्वरूप का विवेचन करता है, वहाँ धर्म आत्मा को परमात्मा या ईश्वर बनने का मार्ग बतलाता है । इसी प्रकार जब आचाररूप धर्म आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बतलाता है; तब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि आत्मा और परमात्मा क्या है या इनका स्वभाव क्या है? इन दोनों में अन्तर क्य और क्यों है ? ये सब जाने बिना आचरण को सुधारने वाला उसी प्रकार लाभ नहीं उठा सकता या अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता, जिस प्रकार सोने के 1. जैनशतक, भूधरदास पद्य से 105 तक