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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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प्रमुखरूप से एक अपेक्षा निश्चयनय की तथा एक अपेक्षा व्यवहारनय की होती है। सामान्यत: सम्पूर्ण जिनागम का कथन निश्चयनय और व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित होकर स्याद्वादरूप हुआ है। स्याद्वाद के अन्तर्गत आने पर भी निश्चयनय और व्यवहारनय का पृथक् प्रतिपादन जिनमत में हुआ है; इसीलिए भूघरदास भी उनका ज्ञान आवश्यक मानते हैं :
दोय पक्ष जिनमत विषै, नय निश्चय व्यवहार ।
तिन बिन लहै न जीव यह शिव सरवर की सार ॥ पुनर्जन्म एवं कर्मसिद्धान्त -
जीवादि छह द्रव्यों, सात तत्त्वों आदि के वर्णन करने के अतिरिक्त भूधारदार ने अपने साहित्य में मनीष यं कसिद्धान्त का विवेचन भी किया है। यद्यपि मूलतः सभी जीव अनन्तशक्तिसम्पन्न समान हैं, परन्तु व्यवहारतः जो भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उन सबमें पूर्वजन्मकृत कर्म या संस्कार कारण हैं। वस्तुतः पूर्वकृतकों या संस्कारों में कोई भेद नहीं है । वे दोनों आपस में पर्यायवाची है । जीव अनादि अनन्त स्वयंसिद्ध है, उसका अन्य कोई कर्ता धर्ता हर्ता नहीं है; परन्तु वह स्वयं अपने किये कर्मों के अनुसार सुख - दुःख जीवन - मरण, हानि-लाभ, यश-अपयश आदि भोगता है तथा विभिन्न गतियों या योनियों में जन्म-मरण करता रहता है । जीव आयु आदि कर्मों से आवृत्त होकर पूर्व गति या योनि के शरीर को छोड़ता है तथा अगली गति या योनि के शरीर को धारण करता है। एक गति को छोड़कर दूसरी गति में जन्म लेना, फिर उसे छोड़कर अगली गति में जन्म लेना- इस प्रकार बार-बार जन्म लेना हो पुनर्जन्म है । दूसरे शब्दों में कर्मबन्धनयुक्त जीव का कर्मानुसार विभिन्न गतियों या योनियों में जन्म लेना, विभिन्न पर्यायों को प्राप्त करना ही पुनर्जन्म है। जब कोई जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने मूलस्वभाव को पहिचानकर उसमें ही लीन होकर आगामी कर्मबन्धन नहीं करता है तथा पूर्वकृत समस्त कर्मों का नाश कर देता है, तब वह जन्म मरण के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाता है। 1. जैनशतक, पूधरदास छन्द 101
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