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एक समालोचनात्मक अध्ययन पर पूर्वकाल में बैठे पुराने कमों (कार्माण वर्गणाओ) के साथ नये कर्मों का बंध जाना, सो द्रव्यबन्ध जानना चाहिए।'
संवरतत्त्व कथन • आस्त्रव को रोकने के कारणरूप आत्मा के शुद्धभावों को भावसंवर तथा उनके निमित्त से नये कर्मों का आना रुक जाना द्रव्य संवर है 1 पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशधर्म, बारह भावनाये, बाईस परीषहों का जीतना, तथा पाँच प्रकार का चारित्र - ये सब भावसंवर के भेद हैं । इन सबसे कर्म उसी प्रकार आना रुक जाते हैं, जिस प्रकार नाली के मुँह पर डाट लगाने से पानी आना रुक जाता है।'
वत आदि का याचरण करने वाले शुभोपयोगी जीव के पापात्रव का संबर (रुक जाना) होता है, जबकि वीतरागभाव रूप शुद्ध - उपयोग का आचरण करने वाले साधु के पुण्य और पाप दोनों का संवर होता है । *
निर्जरातत्त्व कथन - तप के बल से कर्मों की स्थिति का कम हो जाना अर्थात् बिना फल दिये कर्मों का खिर जाना (अविपाक निर्जरा) तथा फल देकर कर्मों का खिर जाना (सविपाक निर्जरा) जिन शुद्ध वीतरागी भावों से होता है उन शुद्ध भावों को (आंशिक शुद्धि की वृद्धि) को भाव निर्जरा कहते हैं। संवरपूर्वक निर्जरा ही मोक्षदायी है। बंधे हुए कर्मों का (आंशिक) खिर जाना
----- 1. रागादिक परिनाम जिनसों चेतन बंधत है। तिन भावन को नाम,भावबन्ध जिनवर कह्यो । जो चेतन परदेश पै,बैठे कर्म पुरान । नये कर्म तिनसों बंधे, दरब बन्ध सो जान ॥
पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 84 2. आस्रव अविरोधन हेतभाव, सो जान भावसंवर सुभाव ।
जो दरवित आस्रव शुद्ध रूप, सो होय दरब संवर सरूप ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 4 3. व्रत पंच समिति पोचों सुकर्म । वर तीन गुप्ति दश भेद धर्म ॥
बारह विधि अनुप्रेक्षा विचार । बाईस परीषह विजय सार ॥ पुनि पांच जात चारित अशेष । ये सर्वभाव संवर विशेष ।। इनसो कर्मास्रव रुके एम। परनाली के मुंह डाट जेम ।। पार्श्वपुराण, कलकला, अधिकार 9, पृष्ठ 8485 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 85