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महाकवि पूधरदास :
(ग) इस सम्बन्ध में यह भी अनुमान लगाय है कि - "सन्त शब्द का प्रयोग किसी समय विशेष रूप से केवल उन भक्तों के लिए ही होता था, जो विट्ठल या वारकरी सम्प्रदाय के प्रधान प्रचारक थे और जिनकी साधना निर्माण भक्ति के आधार पर चलती थी। सन्त शब्द इनके लिए प्राय: रूढ़ सा हो गया था और कदाचित् अनेक बातों में उन्हीं के समान होने के कारण उत्तरी भारत के कबीर साहब तथा अन्य ऐसे लोगों का भी वही नामकरण हो गया।
दूसरा प्रश्न, सन्त को निर्गुण उपासक तथा भक्त को सगुण उपासक मानकर दोनों में अन्तर करने की वृत्ति कैसे विकसित हुई ?
इसका उत्तर यह है कि प्रारम्भ में ईसाई सन्तों और भारतीय भक्तों में अन्तर बताने के लिए सन्त और भक्त में भेद किया गया, न कि सगुण को भक्त और निर्गुण को सन्त बताने के लिए; क्योंकि भक्तिशास्त्र के ग्रन्थों में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों को ही भक्ति का विषय माना गया है ।
भारतीय भक्तों और ईसाई सन्तों के अन्तर को लेकर चलने वाले विवाद के समय ही कबीर आदि सन्तों का साहित्य प्रकाश में आया । कबीर आदि सन्तों के साहित्य की निर्गुण सत्ता के प्रति प्रेम निवेदन करने वाले ईसाई सन्तों से पर्याप्त समानताएँ है, इसीलिए स्वभावत: तुलसी आदि सगुणभक्तों से ईसाई सन्तों को जिन आधारों पर भिन्न सिद्ध किया गया था; उन्हीं आधारों पर सगुण उपासक तुलसी आदि और निर्गुण उपासक कबीर आदि को भी परस्पर भिन्न सिद्ध कर दिया गया।'
(ख) सन्त साहित्य की विशेषताएँ या मुख्य प्रवृत्तियाँ
किसी भी साहित्य की विशेषताएँ अनुभूति अर्थात् भावपक्ष और अभिव्यक्ति अर्थात् कलापक्ष की दृष्टि से विवेच्य होती हैं । सन्त साहित्य की भावपक्ष और कलापक्ष सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ हैं । विभिन्न विद्वानों ने सन्त साहित्य की विविध विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाकर उनकी विवेचना की है।
1. उत्तरी भारत की सन्त परम्परा --- परशुराम चतुर्वेदी प्रथम संस्करण पृष्ठ 7 2, भक्ति रसामृत सिन् 1.12 भारतीय संस्कृति और साधना - म.प्र.
पं. गोपीनाथ कविराज एवं निर्गुण भक्ति : स्वरूप एवं परम्परा-डॉ.राजदेव सिंह 3. सन्तों की सहज साधना : प्रथम खण्ड संत) डॉ. राजदेव सिंह पृष्ठ 40