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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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के प्रति इनमें आस्था थी और पौराणिक देवताओं तथा विष्णु के प्रति द्रोह भाव था । 2 इन मिथ्या दंभ करने वालों को सभी लोग सन्त कहते हैं।
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तुलसीदास सन्त-लक्षण में ब्राह्मण के प्रति आस्था एवं पूज्यबुद्धि तथा दाशरथि राम को परब्रह्मता तथा रामकथाश्रवण ' आदि को आवश्यक मानते हैं। वे ब्राह्मणश्रेष्ठता, दाशरथि राम की भगवत्ता तथा वेद-पुराण की महत्ता न मानने वालों के लिए जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग करते हैं; वे सब विशेषण मौलिक, अश्रुतपूर्व, साम्प्रदायिक तथा द्वेषगर्भित प्रतीत होते हैं ।"
कुछ प्रश्न : कुछ उत्तर
सन्त शब्द के अर्थ निर्धारण के सम्बन्ध में पहला प्रश्न यह है कि कबीर आदि निर्गुणोपासकों के लिए ही " सन्त" शब्द का प्रयोग क्यों होने लगा ? “सन्त” ” शब्द इतना रूढ़ और साम्प्रदायिक कैसे बन गया ?
इस प्रश्न के उत्तर में अनेक संभावनाएँ की जा सकती है, अनेक अनुमान लगाये जा सकते हैं - (क) “सन्त” पद के उपर्युक्त संकुचित एवं रूढ़ अर्थ निर्धारण में तुलसीदास द्वारा मान्य नए सन्त लक्षणों से पर्याप्त सहायता मिलने की सम्भावना है।
(ख) “सन्त” शब्द का निर्गुणोपासक कबीर आदि के लिए रूढ़ एवं साम्प्रदायिक अर्थ बीसवीं शताब्दी में हिन्दी आलोचना एवं अनुसंधान की प्रगति के साथ हुआ है। आधुनिक हिन्दी आलोचना में सन्त शब्द की पारिभाषिक मर्यादा बिल्कुल नई है।
1. सिव सेवक मन क्रम अरू बानी। आनदेव निन्दक अभिमानी
रामचरितमानस (गीताप्रेस गोरखपुर) उत्तराखण्ड दोहा 97 चौपाई 1
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मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह ।
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हरिजन दिज देखे जरदं करडं बिस्नु कर द्रोह ।। वही दोहा 105 क
3. मिध्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ सन्त कहइ सब कोई | वहीं दोहा 98 चौपाई 2
4. सुनि मुनि संतन के गुन कहीं। जप तप व्रत दम संजम नेमा ।।
गुरु गोविन्द चित्र पद प्रेमा || मानस अरण्यकाण्ड दोहा 46 चौपाई 2
5. राम कथा ससि किरन समाना । सन्त चकोर करहिं जेहि पाना ||
वही बालकाण्ड 47 चौपाई
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6. वही बालकाण्ड दोहा 47 8. वही पृष्ठ 37
7. सन्तों की सहज साधना डॉ. रामदेवसिंह पृष्ठ 33 9. वही पृष्ठ 37
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